लेकिन कंपनी के मालिक और सरकार इनका मुआवजा नहीं दे रही है। इसी को लेकर पिछले तीन महीने से चौसा गांव के किसान धरने पर बैठे हुए थे।लेकिन अचानक पिछले दिनों वहां के किसानों को मारा-पीटा गया। किसानों का कहना है कि रात में पुलिस और गुंडा तत्त्व आए और जबरदस्ती घर में घुसकर मारपीट कर धरना बैठाने की हिदायत दी। इससे वहां के किसानों का गुस्सा और उग्र हो गया, क्योंकि उनका कहना है कि हमारे जमीन के अधिग्रहण के बदले हमें मुआवजा दिया जाए, क्योंकि हमारे पास जो था, वह कंपनी ने छीन लिया है।
किसानों की रोजमर्रा की जिंदगी जिस खेती से चलती थी, वह खेती छीन गई। उनके पास कुछ नहीं है। इसलिए उन्हें मुआवजा चाहिए। उनकी पिटाई कहीं से भी उचित नहीं है और जो लोग कानून को हाथ में लेकर किसानों के साथ गलत तरीके से पेश आ रहे हैं, निश्चित रूप से वे किसी के बहकावे पर ऐसा कर रहे हैं, जो निहायत ही गलत है।
यह लोकतंत्र है और लोकतंत्र में अगर किसी का भी हक छीना जाता है तो उसका विरोध जायज है। कंपनी मालिक और किसान को जल्द से जल्द उनका मुआवजा उपलब्ध करवाना चाहिए और किसान से सद्भाव की नीति अपनाकर उन्हें भविष्यमुखी बनाना चाहिए। जब किसान नहीं बचेगा, तब हमारी और आपकी थाली में रोटी नहीं पहुंचेगी! रोटी तोड़ने वाले को यह समझने की जरूरत है।
एस कुमार, लालगंज, वैशाली
बुजुर्गों के लिए
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग के अनुसार, भारत की जनसंख्या में वृद्ध जनों की हिस्सेदारी वर्ष 2011 में लगभग नौ फीसद थी जो वर्ष 2036 तक अठारह फीसद तक पहुंच सकती है। अगर भारत निकट भविष्य में वृद्ध जनों के लिए जीवन की अच्छी गुणवत्ता सुनिश्चित करना चाहता है तो इसके लिए योजना निर्माण और उसका क्रियान्वयन अभी से शुरू कर देना चाहिए।
भारत में जीवन प्रत्याशा स्वतंत्रता के समय से अभी तक बढ़कर दोगुनी से अधिक हो गई है (1940 के दशक के अंत में लगभग बत्तीस वर्ष से बढ़कर वर्तमान में सत्तर वर्ष)। दुनिया के कई देशों ने इससे बेहतर प्रदर्शन किया है, फिर भी यह भारत की ऐतिहासिक उपलब्धि है।
हाल के एक सर्वेक्षण के अनुसार तीस फीसद से पचास फीसद बुजुर्गों में ऐसे लक्षण मौजूद थे जो उन्हें अवसाद का शिकार बनाते हैं। अकेले रहने को विवश वृद्ध लोगों में एक बड़ी संख्या महिलाओं की है, विशेष रूप से विधवा महिलाएं। वृद्ध व्यक्तियों के लिए एक सम्मानजनक जीवन की दिशा में पहला कदम यह होना चाहिए कि उन्हें निराश्रिता और इससे संबंधित अभावों से बचाया जाए।
हालांकि इस बात की आशंका होगी कि संपन्न परिवार भी इसका गलत लाभ उठा रहे होंगे, लेकिन बड़े पैमाने पर बहिर्वेशन त्रुटियों को बनाए रखने से बेहतर होगा कि कुछ समावेशन त्रुटियों को समायोजित कर लिया जाए।
सागरिका गुप्ता, नई दिल्ली</p>
खोटी नीयत
किसी ने क्या खूब कहा है कि ‘कर्म तेरे अगर अच्छे है तो किस्मत तेरी दासी है, नीयत तेरी अच्छी है तो घर ही मथुरा-काशी है’। इस दौर में लोग मंदिर, पूजा पाठ भी अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर करते हैं। कुछ लोग तो ऐसे भी होंगे जो धार्मिक स्थलों पर तो खूब धन-दौलत का चढ़ावा चढ़ाते होंगे, लेकिन किसी गरीब और जरूरतमंद की एक पैसे की मदद नहीं करते होंगे। क्या ऐसे में ईश्वर प्रसन्न होंगे? शायद नहीं।
अगर हमारे आसपास कोई दो वक्त की रोटी को तरस रहा हो, रोजमर्रा में प्रयोग होने वाली जरूरी चीजों को तरस रहा हो, गरीब बच्चे आर्थिक समस्या के कारण आधुनिक शिक्षा से वंचित हों, तो हमारा किसी भी धार्मिक स्थान पर जाना, वहां जाकर चढ़ावा चढ़ाना, लंगर लगाना, पूजा-पाठ, व्रत करना और अन्य सभी धार्मिक कार्यो पर धन खर्च करना व्यर्थ है।
अगर हम किसी एक गरीब और जरूरतमंद की कोई भी मदद करते हैं तो यही सबसे बड़ी आराधना होगी, इससे बड़ा कोई पुण्य नहीं। जब तक देश में गरीबी, बेरोजगारी, शोषण, नाइंसाफी जैसी समस्याओं का अंत नहीं हो जाता और देश में इंसानियत को शर्मसार करने वाले गलत काम समाप्त नहीं हो जाते, तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि हमारा देश आदर्शों पर चलकर एक अच्छी दिशा को लेकर जा रहा है।
राजेश कुमार चौहान, जलंधर
जंग के जिम्मेदार
युद्ध की परिणति हमेशा विभीषिका से होती है। युद्ध अपने आप में अपराध है। मानवता के खिलाफ क्रूर और निर्दयतापूर्ण घातक हमला है। इस समय यूक्रेन के नागरिक बिना किसी दोष के युद्ध की आग में जल रहे हैं। इसी शनिवार देर रात और रविवार सुबह को जिस तरह से रूसियों ने मिसाइल हमले करके दक्षिण-पूर्वी यूक्रेनी शहर नीप्रो में एक नौ मंजिला अपार्टमेंट को ध्वस्त कर दिया, उसमें वृद्ध, जवान एवं बच्चों समेत तीस से अधिक लोग मारे गए।
क्या इस हमले को किसी भी दृष्टिकोण से जायज ठहराया जा सकता है? युद्ध के भी अपने नियम होते हैं। जो नागरिकों पर हमले करने की इजाजत कभी नहीं देता। उधर पश्चिम के देश यूक्रेन को हथियार की आपूर्ति कर तो रहे हैं, मगर यह कहते हुए परिष्कृत हथियार नहीं दे रहे हैं कि इससे युद्ध का विस्तार हो जाएगा। जर्मनी अपना लियोपर्ड-2 नामक टैंक देने से मना कर चुका है।
ब्रिटेन चैलेंजर-2 टैंक देने को राजी तो हुआ है, मगर इससे क्या रूसियों की आक्रामकता को धीमा किया जा सकेगा? उधर रूस अपने सहयोगी बेलारूस को भी दूसरे छोर से उक्रेन में हमले करने को राजी करता नजर आ रहा है। ऐसे में क्या विश्व बिरादरी को इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि युद्ध का विस्तार होगा? अगर ऐसा ही सोच मित्र राष्ट्रों का द्वितीय महायुद्ध के समय होता तो क्या हिटलर का अंत होता? क्या द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होता ?
जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर