सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीति में बेतहाशा बढ़ते अपराधीकरण और चुनाव की लचर प्रक्रिया पर चिंता जताते हुए विधि निर्माताओं से मार्मिक अपील की है कि वे इसे नियंत्रित करने के लिए प्रभावी कदम उठाएं। इस कड़ी में बिहार के आठ राजनीतिक दलों के गत विधानसभा निर्वाचन में अपराध से संबंधित ब्योरा सार्वजनिक नहीं करने और दागदार छवि के व्यक्तियों को प्रत्याशी बनाए जाने का कारण बताने के न्यायिक आदेश पर अमल नहीं करने के फलस्वरूप अवमानना के दोषी ठहराते हुए आर्थिक दंड लगा कर भविष्य के लिए गंभीर संदेश दिया। हालांकि न्यायालय ने इस संदर्भ में कहा है कि संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों के वितरण में उसकी भूमिका सीमित है और उनके हाथ बंधे हुए हैं, लेकिन अनेक न्यायिक निर्देश के बावजूद दलों का गहरी नींद में सोए रहना चिंताजनक स्थिति है।
आंकड़े बताते हैं कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में अड़सठ फीसद विजयी उम्मीदवारों के विरुद्ध कोई न कोई आपराधिक मामला दर्ज था। चुनाव सुधार पर आज तक संसदीय चर्चा तो दूर, किसी सदस्य ने न कोई प्रस्ताव दिया और न सुझाव। यह स्थिति समझने के लिए काफी है कि राजनीति में अपराध से मौन समझौते में सभी दलों की अटूट संधि है। बुनियादी सवाल यही है कि जो जनप्रतिनिधि बाहुबलियों के सहारे ही सदन की शोभा बढ़ाते हैं तो किस मुंह से वे उन्हें सरंक्षण देने से इनकार और परहेज कर सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और आदेश के अंश में एक और महत्त्वपूर्ण निर्देश है कि संबंधित राज्यों के उच्च न्यायालय के अनुमति के बिना सांसदों एवं विधायकों के आपराधिक मामले कतई वापस नहीं लिए जाएं। चारों दिशा से हो रही न्यायिक घेराबंदी के बाद भी अगर राजनीतिक दल नहीं चेते तो यह लोकतांत्रिक मर्यादाओं का हनन तो होगा ही, साथ ही साथ देश की सामाजिक सरंचनाओं के तानेबाने भी अपराध के आंगन की चौहद्दी में बढ़ते रहेंगे।
सकारात्मक संभावनाओं की सूची में चुनाव सुधार की प्राथमिकता लाने की विवशता से राजनीतिक दल भले शुतुरमुर्गीय मुद्रा अपनाए रखें, लेकिन वक्त आने पर जब जन भावनाओं का उफान होगा, तब शायद यही आंदोलन की नींव बन सकता है। ऐसे मामलों के निष्पादन के लिए त्वरित न्यायालय के गठन और इसकी धीमी प्रक्रिया को भी रफ्तार देनी होगी। अगर सरकार इस कोढ़ के उन्मूलन के लिए सर्वदलीय बैठक द्वारा किसी सृजनात्मक निर्णय पर पहुंचे तो लोकतंत्र की गरिमा और विरासतीय सम्मान में चार चांद लग सकेगा। सवाल नीति का नहीं, बल्कि नीयत के नकारात्मक नैराश्य से उबरने का है।
’अशोक कुमार, पटना, बिहार
पारदर्शिता की खातिर
किसी भी नौकरी में चयन के लिए होने वाला साक्षात्कार पद-अभिलाषी के साथ उसके परिवार वालों को भी आशंका और तनाव में ला देता है। अनेक पद-अभिलाषियों के लिखित परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण करने के बावजूद अंतिम चयन के लिए होने वाले साक्षात्कार कड़े इम्तिहान के सबब बन जाते हैं। अनेक बार साक्षात्कार लेने वाले पक्षपात की नीति अपनाते हुए अपने पसंदीदा व्यक्तियों के चयन को प्राथमिकता देते हैं, जिससे योग्य-प्रत्याशियों का चयन नहीं हो पाता है।
राजनीतिक दबावों के चलते उन पदों पर नियुक्ति में भाई-भतीजावाद का असर दिखाई देता है। ऐसे आयोजित साक्षात्कार, भ्रष्टाचार बढ़ाने के साथ ‘योग्यता का खात्मा’ करने का कार्य भी करते हैं।भर्ती प्रक्रिया में आई विसंगतियों को दूर करने और उनमें पारदर्शिता लाने के लिए कुछ समय पहले केंद्र सरकार ने कुछ वर्ग की सरकारी नौकरियों में साक्षात्कार की अनिवार्यता को समाप्त करने की घोषणा की है। इस घोषणा के मद्देनजर कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने सरकारी नौकरियों में लिखित परीक्षा के आधार पर नियुक्तियां करना शुरू भी कर दिया है। सरकारी नौकरियों में वर्ग बी (गैर राजपत्रित) और वर्ग सी में साक्षात्कार को समाप्त किए जाने के बाद सरकार को अन्य वरिष्ठ सरकारी पदों के लिए होने वाले साक्षात्कारों को समाप्त करने की दिशा मे सोचना चाहिए।
आज भारत के शहरी क्षेत्रों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी प्रतिभाओं की कमी नहीं है, जिन्हें आगे लाने के प्रयास जरूरी हैं। इनमें साक्षात्कार को लेकर असमंजस और भय की मनोदशा बनी रहती है। सरकारी नियुक्तियों के लिए आयोजित होने वाली कठिन लिखित परीक्षा के आधार पर चयनित होने से हर क्षेत्र का हर होनहार और काबिल प्रत्याशी, सरकारी नौकरी में अपनी सेवाएं देकर देशसेवा में अपना योगदान दे पाएगा।
’नरेश कानूनगो, बंगलुरु, कर्नाटक