केरल हाईकोर्ट के एक जज ने सवाल उठाया है कि अगर मुसलिम पर्सनल लॉ पुरुष को चार शादी करने की इजाजत देता है तो महिलाओं को ऐसी छूट क्यों नहीं दी गई है! न्यायाधीश बी कमाल पाशा का दावा है कि मुसलिम पर्सनल लॉ महिलाओं के हक के प्रति बेहद उदासीन है, जिसे समय के साथ बदलने की जरूरत है। भारत में सभी अल्पसंख्यक समुदायों को व्यक्तिगत और नागरिक मामलों में अपने-अपने धार्मिक कानूनों के पालन की अनुमति प्राप्त है। लेकिन महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने वाले प्रमुख संगठन ‘भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन’ की सह-संस्थापक साफिया नियाज का कहना है कि मुसलिम पर्सनल लॉ को ही आधिकारिक तौर पर संहिताबद्ध नहीं किया गया है।
उनका कहना है कि वर्तमान मुसलिम कानून कुरान के अनुरूप नहीं है और समानता के सिद्धांतों पर आधारित नहीं है। उनके मुताबिक, मुसलिम विवाह अधिनियम-1939 महिलाओं को क्रूरता के आधार पर तलाक लेने की अनुमति तो देता है, लेकिन उसके तहत पुरुषों के पास एकतरफा मौखिक तलाक का अधिकार बरकरार है। मुसलिम महिला अधिनियम-1986 तलाक के बाद महिलाओं को रखरखाव की मांग का अधिकार देता है, लेकिन विभिन्न अदालतें इसका अलग-अलग अर्थ निकालती हैं।
हाल ही में एक मुसलिम महिला ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई कि तीन बार तलाक कहने पर तलाक की प्रक्रिया को पूरा मान लेने की परंपरा के साथ-साथ निकाह हलाला (पति से तलाक के बाद उससे दोबारा शादी की प्रथा) पर भी प्रतिबंध और पुरुषों द्वारा एक से ज्यादा शादियों पर भी रोक लगाई जाए। इन मामलों में शायरा बानो ने भारतीय नागरिक के लिए संविधान की धारा 14,15, 21 और 25 के तहत अपने मूल अधिकारों के हनन की बात कही है।
गौरतलब है कि संविधान की ये सभी धाराएं देश के सभी नागरिकों को एक समान अधिकार देती हैं। पिछले साल अक्तूबर में अदालत ने एक मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए मुसलिम पर्सनल लॉ से महिला विरोधी कानून को खत्म करने की बात कही थी। लेकिन कुछ मुसलिम संस्थाओं ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि पर्सनल लॉ सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। सवाल यह है कि क्या देश का संविधान अपने सभी नागरिकों को जो मूल अधिकार मुहैया करा रहा है, उसका फायदा मुसलिम महिलाओं को नहीं मिलना चाहिए?
’संजीव कुमार, नई दिल्ली</p>
