स्कूल तो है, पर शिक्षक नहीं (13 अक्तूबर) में भारत में सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी को लेकर चिंता व्यक्त की गई है। दरअसल, भारत में हर तबके के लोग रहते हैं- कुछ अमीर है, तो कुछ गरीब। पैसे वालों के बच्चे तो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ लेते हैं, जहां हर तरह की सुविधाएं मिलती हैं। पर बात आती है गरीबों के बच्चों की, जो सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, जहां उन्हें शिक्षकों के दर्शन ही नहीं होते। हमारे संविधान में शिक्षा को समवर्ती सूची में शामिल किया गया है, ताकि शिक्षा से संबंधित कुछ कार्य केंद्र सरकार भी कर सके, लेकिन स्कूल-कालेज में शिक्षकों की नियुक्ति का काम राज्य सरकारों का है।

इस लेख में बताया गया है कि वर्तमान में पूरे भारत में ग्यारह लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। ऐसी रिपोर्ट बीच-बीच में आती रहती है, ताकि सरकारें उस पर ध्यान दें, लेकिन हमारी सरकारें इन्हें सुन कर ऐसे भूल जाती हैं, जैसे कि वे बहरी हों और उन्हें कुछ सुनाई ही नहीं देता है। हमारे संविधान में पहले निश्शुल्क शिक्षा का मौलिक अधिकार नहीं था। इसे संविधान संशोधन करके जोड़ा गया और मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 पारित करके इसे लागू किया गया। तब शिक्षाविदों को लगा कि अब सभी बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन उन्हें कहां पता था कि सरकारें स्कूल बनवा कर उसमें पढाई तो शुरू कर देंगी, पर उसमें शिक्षकों की नियुक्ति ही नहीं करेंगी तो बच्चे पढ़ेंगे कैसे। केंद्र सरकार को अब ऐसा भी कानून बनाने की आवश्यकता है, जिसमें न चाहते हुए भी राज्य सरकारों को अनिवार्य रूप से स्कूल में शिक्षकों की भर्ती करनी पड़े। जिससे हर तबके के बच्चे शिक्षा पा सकें।
’सुषमा जायसवाल, मिजार्पुर, उप्र

सूचना की सलीब

सूचना का अधिकार लागू हुआ, तो देश की जनता को उम्मीद बनी थी कि इसके तहत सरकारी महकमों में फैले भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसा जा सकेगा। इसके लिए केंद्रीय सूचना आयोग का गठन किया गया और राज्यों में भी इसी तर्ज पर विभिन्न सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की गई। मगर इस कानून के तहत सूचनाएं मांगने वाले अनेक कार्यकर्ताओं की समय-समय पर हत्या कर दी गई। इसके बाद इस पर चर्चा भी हुई कि सूचना के अधिकार का दुरुपयोग किया जा रहा है। इसके अलावा तर्क दिया गया कि सरकारी विभागों में सूचना के अधिकार के तहत सूचनाएं देने की वजह से काम का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। मगर इस बात में कितनी सच्चाई है, इस बात का पता इससे चलता है कि सरकारी तंत्र ने अगर अपना काम तरीके से पूरा किया है, तो किसी भी प्रकार से काम का बोझ नहीं बढ़ता।

सूचना का अधिकार कानून को लागू हुए अब सोलह वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन हैरानी है कि आज भी विभिन्न मंत्रालयों में सूचना देने को लेकर आपसी विवाद चल रहे हैं। कुछ मंत्रालय इस बात पर सहमत हैं कि सभी को सूचनाधिकार के दायरे में आना चाहिए, पर कुछ इस पक्ष में हैं कि उन्हें इसके दायरे से बाहर रखा जाए। सवाल है कि अगर सरकारी विभागों का कामकाज पारदर्शी और स्वच्छ है तो उन्हें सूचना देने में किसी भी प्रकार की परेशानी क्यों होनी चाहिए। अगर इससे इनकार किया जाता है तो यही जाहिर होता है कि वहां कुछ न कुछ गड़बड़ी जरूर है। सूचनाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या और उन पर हमलों से भी यही बात जाहिर होती है।
’विजय कुमार धानिया, नई दिल्ली</p>