कर्नाटक के एक विद्यालय की कुछ छात्राओं के हिजाब पहनने को लेकर छिड़ा विवाद अब उच्चतम न्यायालय तक जा पहुंचा है। जो विवाद एक विद्यालय के व्यवस्थापकों के स्तर पर सुलझाया जाना था, उसे राजनीतिक पार्टियों और मीडिया द्वारा विकराल रूप दे दिया गया है। दोनों ही पक्षों के अपने-अपने तर्क और डर हैं। एक पक्ष का मानना है कि वर्दी या यूनिफार्म तय करने का अधिकार सिर्फ प्रशासन को है और इसमें किसी भी आधार पर कोई छूट नहीं मिलनी चाहिए।

अगर एक बार किसी वर्ग विशेष को छूट देने की परिपाटी चल पड़ी, तो हर संस्था में यह मांग तरह-तरह से उठने लगेगी और व्यवस्था और अनुशासन के सामने एक बड़ी गंभीर चुनौती आ जाएगी। देश के अनेक संस्थानों में वर्दी का प्रावधान है, जैसे सेना, पुलिस, स्वास्थ्य आदि। कई कारपोरेट में भी वर्दी का प्रावधान है। कई स्थानों पर वर्दी ही पहचान का काम भी करती है।

दूसरी ओर यह मानना है कि किसी व्यक्ति को क्या पहनना है, यह सिर्फ उसे तय करने का अधिकार है। इस विषय में किसी और द्वारा किया गया निर्णय उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन होगा। उनका यह भी डर है कि प्रशासन द्वारा एक धर्म विशेष के लोगों को चिह्नित करके अपमानित करने की यह कोई चाल है।

इस मुद्दे को चुनावी माहौल में खूब भुनाया जा रहा है। पता नहीं उच्च न्यायालय का निर्णय कब तक आएगा और क्या निर्णय आने के बाद दूसरा पक्ष उच्चतम न्यायालय का रुख नहीं करेगा? और एक विद्यालय के लिए दिया गया फैसला क्या सभी संस्थाओं पर लागू हो सकेगा? विशेष परिस्थिति में सेना में भी ऐसे प्रावधान हैं, जैसे सरदारों को वर्दी की निर्धारित टोपी के स्थान पर पगड़ी पहनने की छूट है और यही छूट उन्हें परिवहन विभाग द्वारा भी हेलमेट की जगह पगड़ी पहनने पर मिलती है।

यह संवेदनशील मुद्दा अब इतना व्यापक हो गया है कि सरकार द्वारा पूरी संवेदना रखते हुए इस विषय पर पारदर्शी प्रावधान बनाने होंगे, जिनके तहत वर्दी पहनने पर किस आधार पर और किस हद तक छूट दी जा सकती है, इसके स्पष्ट निर्देश दिए जायं।

  • दीपक दीक्षित, सिकंदराबाद, तेलंगाना