भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की फीस में भारी इजाफे का प्रस्ताव अगर अमल में आता है तो यह देश के वंचित समाज के लोगों को यह शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से अप्रत्यक्ष रूप से वंचित कर देगा। गौरतलब है कि आइआइटी की फीस में दो-तीन गुना नहीं, बल्कि दो सौ प्रतिशत की बढ़ोतरी का प्रस्ताव रखा गया है। इस प्रस्ताव से यह भी साबित होता है कि व्यवस्था में बैठे लोग शिक्षा जैसी बुनियादी चीज पर कितने संवेदनहीन हैं। नई व्यवस्था देश के गरीबों, दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलाओं के साथ एक प्रकार से धोखा है। सरकार यह दावा करती है कि वह संविधान की भावना के अनुरूप लोक-कल्याण के कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध है। पर जिस तरह आज शिक्षा को बाजार के हवाले कर, खरीदने-बेचने का कारोबार बना दिया गया है, उससे साफ है कि सरकार संविधान की लोक-कल्याण की भावना से दूर हट रही है।
सवाल है कि सरकारें कितनी संवेदनहीन हो गई हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी चीजों को भी बाजार के हवाले किया जा रहा है। प्राथमिक और स्कूली शिक्षा को पहले ही बाजार के हवाले कर बर्बाद कर दिया गया है। आज देश के गरीब ही नहीं, बल्कि मध्यम वर्गीय परिवार भी अपने बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा को लेकर बेहद परेशान है। प्राइवेट स्कूलों की भारी-भरकम फीस से वे पहले से ही हताश-परेशान थे कि अब आइआइटी जैसे संस्थानों की फीस बढ़ोतरी के प्रस्ताव ने उनकी नींद उड़ी दी है। देश के बड़े प्रबंधन संस्थान पहले ही साधारण लोगों की पहुंच से बाहर हो चुके हैं और अब आइआइटी जैसे संस्थान भी इसी राह पर हैं।

इस तरह उच्च शिक्षा का आम आदमी की पहुंच से बाहर होना गंभीर खतरे का संकेत है। फीस बढ़ोतरी की हलचल से साफ है कि सरकार अब उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना चाहती है। सवाल है कि सरकार किसके लिए काम करती है? संसद, मंत्रालय, सरकार, न्यायालय किसके लिए है? ये लोकतंत्र का उपक्रम किसके लिए? क्या चंद पूंजीपतियों के लिए हम लोकतंत्र को समेट कर रख देंगे? आज का सबसे बड़ा मुद्दा यही है। मगर दुर्भाग्य की देश की राजनीति में ऐसे मुद्दों पर कभी उबाल नहीं आता। मीडिया के लिए कभी ऐसे मुद्दे खबर नहीं बनते। देश को भारत माता के नारों में उलझा दिया है और पीछे से विजय माल्या जैसे लोगों को देश को लूटने की मानो छूट दे दी है। सरकार को देश की गरीब आबादी के स्वास्थ्य और शिक्षा की फिक्र नहीं है। उसे तो पैसे वालों का इलाज करना है और उन्हें ही शिक्षित बनाना है। गरीब तबके के लोग यों ही घुट-घुट कर मरने के लिए अभिशप्त हैं।
’पप्पूराम मीना, दयालसिंह कॉलेज, नई दिल्ली</p>