आश्चर्य है कि जिस सैद्धांतिक बिंदु पर क्रिसमस के दिन ‘सुशासन दिवस’ मनाने के कथित आदेशों की आहटों का संसद तक में पुरजोर विरोध किया गया, वह संवेदनशीलता गांधी जयंती से जुड़े आदेशों पर देखने को नहीं मिली, जबकि दोनों ही केंद्रीय स्तर पर राजपत्रित अवकाश हैं। गांधी जयंती को तो राष्ट्रीय अवकाश का दर्जा भी प्राप्त है। इस चूक का एक कारण कुछ दलों की ओर पेश किया गया वह अधूरा तर्क है, जिसके मुताबिक क्रिसमस के दिन किसी अनिवार्य कार्यक्रम के आदेश जारी करने से ईसाइयों के अधिकारों और मन को ठेस पहुंचती।

असल में तो किसी भी त्योहार की तरह क्रिसमस मनाने का हक भारत के हर नागरिक का है, चाहे वह ईसाई पृष्ठभूमि का हो, हिंदू हो, बौद्ध, मुसलमान या फिर सिख हो। दूसरी तरफ, किसी भी राजपत्रित अवकाश को कार्य-दिवस में बदलने के लिए एक संवैधानिक या प्रशासनिक प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है। महज किसी के कह देने से, भले वह किसी भी पद पर क्यों न हो, कोई राजपत्रित अवकाश खारिज नहीं हो जाता।

तो एक अर्थ में यह राजपत्रित अवकाश केवल धार्मिक अधिकार नहीं हैं, बल्कि इन्हें नागरिक और कर्मचारी-मजदूर हकों के रूप में भी देखने की जरूरत है। गलत समझ से किसी तुगलकी फरमान का विरोध करने का परिणाम दूरगामी नहीं होगा। इसका उदाहरण दिल्ली के सार्वजनिक स्कूलों के वे हजारों शिक्षक हैं, जिनकी दो अक्तूबर को स्वच्छता शपथ कार्यक्रम में अनुपस्थित रहने पर गैरकानूनी ढंग से एक छुट्टी काट ली गई। एक ओर कार्यक्रम को ऐच्छिक बताया गया था और (वैसे भी कोई शपथ अनिवार्य नहीं की जा सकती) दूसरी ओर राष्ट्रीय राजपत्रित अवकाश होने के नाते इस दिन किसी कर्मचारी की छुट्टी काटना दंडनीय अपराध है।

अगर ऐसा हुआ तो उसका कारण वह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक समझ है, जिसके तहत प्रशासन को निर्देशित करने की कोशिशें हो रही हैं। एक ऐसा माहौल निर्मित किया जा रहा है, जिसमें सेवा-नियमों और संविधान की बंदिशों को नहीं, बल्कि शीर्ष पर विराजमान व्यक्तियों की मर्जी को ही कानून का दर्जा प्राप्त हो। यह संस्कृति सामंतवाद और तानाशाही के स्वभाव के अनुकूल है और इससे लोकतंत्र के संतुलित मूल्यों
का ह्रास निश्चित है।

’मनोज चाहिल, दिल्ली विश्वविद्यालय

 

 

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