तवलीन सिंह का लेख ‘सुधार का लंबा होता इंतजार’ (वक़्त की नब्ज, 30 नवंबर) पढ़ा। इसमें ऐसे व्यक्ति का जिक्र है जिसने पिछले एक साल से अपना काम छोड़ कर मोदी का प्रचार किया और इस सोच के साथ प्रचार किया कि वह देश सेवा कर रहा है। आज मोदी के प्रधानमंत्री बनने के छह महीने बाद भी वह निराश है। आखिर यह कैसी देश-सेवा थी जिसे करने के बाद किसी व्यक्ति को निराश होना पड़ गया? वास्तव में देश-सेवा का मतलब होता है देश की सेवा, किसी व्यक्ति की सेवा नहीं। कभी भी किसी ऐसे व्यक्ति, जो अपने राजनीतिक हित साध रहा हो, की सेवा कदापि देश-सेवा नहीं हो सकती। अगर वाकई आपने देश सेवा की है तो किसी प्रकार का निराशा भाव मन में आ ही नहीं सकता क्योंकि राष्ट्र-सेवा वास्तव में एक महान कार्य है और महान कार्यों को करने के बाद हमें संतुष्टि मिलती है, निराशा नहीं।

हम अपने कार्य को सही ढंग से करें इससे बड़ी देश-सेवा हो ही नहीं सकती क्योंकि हमारा देश ही कर्म-प्रधान देश है जहां लोगों के हाथों में गीता होती है। कार्य का त्याग करना और भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में केवल यह उम्मीद करना कि केवल एक व्यक्ति समूचे राष्ट्र को सन्मार्ग पर ले जाएगा, ऐसा संभव नहीं है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में सत्ता जनता के हाथों में निहित होती है। जब तक हम नागरिक खुद भ्रष्टाचार, गरीबी, अशिक्षा आदि समस्याओं से नहीं लड़ेंगे तब तक कोई एक व्यक्ति हमें इनसे निजात नहीं दिला सकता। महात्मा गांधी के शब्दों में कहें तो हम स्वयं में वे बदलाव क्यों नहीं लाते जो हम इस दुनिया में देखना चाहते हैं। फिर मुझे प्रतीत होता है कि इससे बड़ी देश सेवा हो ही नहीं सकती।

तवलीनजी के मुताबिक पिछले दिनों कार्यों में कुशलता आई पर सुधारों के मामलों में कुछ खास प्रगति नहीं दिखी। दिल्ली में सारे बाबू, आला अफसर, नेता, मंत्री सब सवेरे से ही अपने कार्यालयों में जम जाते हैं और शाम तक टिके रहते हैं और साथ ही इस गुलाबी सर्दी में कोई धूप नहीं सेकता। खुद प्रधानमंत्री घंटों काम करते हैं। यह तो बात हुई दिल्ली की। लेकिन एक भारत दिल्ली के बाहर भी बसता है जो कन्याकुमारी से कश्मीर तक फैला हुआ है और जहां देश की शेष एक सौ तेईस करोड़ जनता निवास करती है। उन स्कूलों और अस्पतालों में भी सुधार न सही, कुशलता तो दिखनी ही चाहिए। आखिर अच्छे दिनों पर अधिकार सबका है केवल दिल्ली में बैठे हुए लोगों का नहीं। पिछली सरकारें भी केवल दिल्ली को समस्त भारत मानने की गलतियां कर चुकी हैं जिसका उन्हें बखूबी खमियाजा भुगतना पड़ा है।

तवलीनजी ने कहा है कि सुधारों के क्रम में हमारी सरकार को कुछ परिवर्तन करने चाहिए और इंटरनेट के जमाने में आज सूचना प्रसारण मंत्रालय आदि की प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है लिहाजा, इसे समाप्त कर देना चाहिए। हम सब जानते हैं कि देश में महज उन्नीस फीसद लोग इंटरनेट का प्रयोग करते हैं। बाकी के इक्यासी फीसद तो आज भी उन्हीं परंपरागत साधनों का प्रयोग सूचनाओं के लिए करते हैं। मैं खुद लखनऊ में रहता हूं और पूरे दिन इंटरनेट के वातावरण में रहता हूं पर समाचार ‘रेनबो’ पर ही सुनता हूं, टीवी पर देखता हूं या समाचारपत्रों में ही पढ़ता हूं। फिर ऐसे में मुझे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की प्रासंगिकता समाप्त नहीं दिखती। तब ऐसे सुधार क्यों जिनके कोई अन्य विकल्प ही न हों।

बेशक हम कुछ कानूनों और मंत्रालयों को समाप्त कर सकते हैं लेकिन इसके लिए पहले हमें एक बेहतर विकल्प की तलाश जरूर करनी चाहिए। आखिर क्या मिला हमें योजना आयोग समाप्त करके?

’हेमंत कुमार गुप्ता, लखनऊ

 

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