प्रजातंत्र की नींव जागरूक मतदाता है। सुप्त मतदाताओं को जगाने के लिए ही शासन और समाज द्वारा अभियान चलाया गया- ‘पहले मतदान, फिर जलपान’ या ‘कर्तव्य है मतदान, अधिकार है अधिमान’। छात्रों की रैलियां निकलती रहीं, कक्षा में बालकों को समझाईश दी जाती रही कि अपने माता-पिता से मतदान की जिद करें। मतदान बढ़ा भी। सत्तर प्रतिशत आम आंकड़ा हो गया, पर कुछ खास के सीने पर सांप लोट गया। ‘ऐसे में तो हमारी लुटिया डूब जाएगी।’ तिकड़मबाज चिंतित हो उठे। प्रजातंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने के लिए, पिछले दरवाजे से प्रवेश के उपाय खोजने लगे। सबसे सरल लगा पिछले अनुभव का प्रयोग। मतदाता सूची से विरोधी प्रतिबद्ध मतदाताओं के नाम ही गायब करवा दो! फर्जी नाम जुड़वा दो। जब सूची निर्माता सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत से निर्वाचन आयोग और उसके प्रतिनिधि की नाक के नीचे यह करिश्मा संभव है और ‘जागरूक’ उच्चाधिकारियों के कान पर जूं नहीं रेंगी तो समझो प्रजातंत्र भगवान भरोसे!

पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मतदान करने वाले तो आश्वस्त थे कि इस बार भी वे जागरूक नागरिक का कर्तव्य निर्वहन करेंगे, पर उन्हें मतदान पर्ची ही नहीं मिली। चुनाव कार्यालय में संपर्क किया तो सूची में नाम न होना था, सो नहीं था। बीएलओ से मिलने को कहा गया। मतदान दिवस पर मतदान के संबंधित केंद्र पर पहुंचे तो वहां सैकड़ों मतदान-वंचित भटक कर गुहार लगा रहे थे और करिश्माई गंभीर बने मुस्कुरा रहे थे। अपंग जागरूकता के लिए कला काम कर गई थी। थोड़ा-सा परोक्ष भ्रष्टाचार, गरीब सूची लेखक को (अधिकारी के मौन समर्थन संकेतानुसार) प्रसन्न कर गया और प्रजातंत्र को घायल। वह तो तंत्र के तांत्रिक की भेंट चढ़ गया। जागरूकता अपंग हो गई तो हो, लोकतंत्र की लाज लुट गई तो लुटे, प्रजातंत्र का खेल- ‘फेयर गेम’ गतिशील है! क्या नई पीढ़ी जूझ पाएगी इन अनुभवी ‘वरिष्ठ खिलाड़ियों’ से? किसी के पैर तोड़ कर उसे दौड़ने का आह्वान दीजिए। किसी की प्रतिबद्धता पर संदेह करिए और ईमान बेच कर भी उसके उत्साह को घुटने टेकने को विवश कर दीजिए। निष्पक्ष प्रशासन की छाया में आप जीत गए। इस सार्वजनिक दुरभिसंधि के विरुद्ध संघर्ष जरूरी है। वरना इसे जागरूक अपंगता कहें या अपंग जागरूकता?

’रमेश चंद्र खरे, विवेकानंद नगर, दमोह

 

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