कुलदीप कुमार ने ‘अंदर की असमानता’ (निनाद, 30 नवंबर) में विख्यात क्रांतिकारी राजा महेंद्रप्रताप को याद किया है, भले ही वह अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में उनकी जयंती मनाने जाने के प्रसंग के बहाने हो। राजा महेंद्रप्रताप विदेश में बनी क्रांतिकारियों की अंतरिम सरकार के प्रथम राष्ट्रपति थे और मौलाना बरकतउल्ला प्रधानमंत्री। देश की आजादी के बाद हमारी क्रांतिकारी परंपरा और विरासत को निरंतर विस्मृत किया गया। वाम राजनीति इसके लिए खास तौर पर जिम्मेदार है। कांग्रेस से इस तरह की अपेक्षा करना निरर्थक था और आज भी है।

मैंने कई वर्ष पहले मौलाना बरकतउल्ला की कब्र खोजी। अनेक प्रयासों के बाद वह अमेरिका के कैलीफोर्निया में न होकर सैक्रामैंटो में मिली। मैं मौलाना के अवषेशों को भारत लाने में कामयाब नहीं हो सका। मौलाना की आखिरी ख्वाहिश के लिए ऐसा करना कितना मूल्यवान होता! देश के कितने ही राजनेता, लेखक और बुद्धिजीवी अमेरिका की यात्रा पर जाते हैं पर उनमें से कभी किसी ने मौलाना के अंतिम स्मारक या ‘गदर पार्टी’ भवन की ओर रुख नहीं किया। हमने अपने जरूरी इतिहास को निर्लज्जता से कूड़ेदान के हवाले कर दिया है। अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में इतने भाजपाई हल्ले के बाद भी प्रगतिशील राजनीतिक और सांस्कृतिक खेमों में महेंद्रप्रताप के नाम पर भयानक खामोशी है।

अपने क्रांतिकारी नायकों को विस्मृत किया जाना इतिहास के साथ नाइंसाफी ही नहीं, गद्दारी है। छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर में शंकरनगर चौक पर हैट वाले भगतसिंह की प्रतिमा की गर्दन काट ली जाती है और कुछ नहीं होेता। शहीदे-आजम भगतसिंह को विचारविहीन करने का षड्यंत्र सत्ता, व्यवस्था और दक्षिणपंथियों की ओर से जारी है। अंतत: उनके सिर पर पगड़ी धर ही दी गई। इस कुकृत्य में तो वाममार्गी भी पीछे नहीं रहे। भले ही वे उनकी पगड़ी को ‘सुर्ख’ कर देते रहे हों। संसद में भगतसिंह की पगड़ीधारी तस्वीर लगाई जाती है। हैट वाले भगतसिंह को पगड़ी ने परास्त कर दिया। कुलदीपजी ने अपने स्तंभ में राजा महेंद्रप्रताप को समाजवादी क्रांतिकारी के रूप में रेखांकित किया है। इसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूं।





’सुधीर विद्यार्थी, पवन विहार, बरेली

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