कहां और कौन-सी कमी रह गई जिसके कारण हम इंसान को केवल इंसान मानने की सलाहियत पैदा नहीं कर पाए? कहीं मुसलिम ग्रंथि तो कहीं दलित ग्रंथि। कहीं ऊंच- नीच की बीमारी, कहीं क्षेत्रीयता की संकरी गली। कभी भारतीयता के व्यापक स्वरूप को संकीर्ण दायरे में समेटते हुए राष्ट्रीयता का जामा पहनाना, कभी ओछी और छोटी बातों को गौरव के साथ प्रचारित करने में कोई संकोच न करना। कहां जाकर रुकेगी यह गिरावट? रुकेगी भी या नहीं? क्षणिक लाभ के लिए दूरगामी अहित के बीज बोना, सामूहिकता को नष्ट कर आत्मकेंद्रित होते जाना, असहमति को कटुता की हद तक धकेलते जाना, सौहार्द को तिलांजलि देना, सिद्धांत की जगह त्वरित लाभ की लालसा, सामाजिक सरोकारों का निरंतर क्षरण, फूहड़पन, गुंडागर्दी, कहां तक गिनाएं!
लगभग सभी तरह के अपराध और निंदनीय कृत्य। किसी भी गलत और अशोभनीय हरकत से कोई परहेज न रह जाना। सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक गिरना हमारी पहचान बनता जा रहा है। हम किस तरह के समाज निर्माण में लगे हैं या चुपचाप टुकुर-टुकुर देख कर कौन-सा समाज हित साधा जा रहा है ?
’श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल
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