संपादकीय ‘गंगा का जीवन’ (जनसत्ता, 31 अक्तूबर) पढ़ा। ऐसा लगता है कि गंगा की सफाई या रखरखाव सरकार के बस में नहीं है। गंगा की एक महिमा जरूर समझ में आती है कि यह राजनीतिक दलों को वैतरणी पार कराने का उपकार जरूर करती है। अभी हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गंगा ने बनारस में बुलाया और दिल्ली का ताज सौंप दिया। यह बात धर्म ध्वजा फहराने वाले राजनीतिक दल समझ गए हैं। इसीलिए उन्होंने गंगा सफाई का ऐसा मुद्दा हाथ में लिया है, जिसमें सैकड़ों नहीं तो दशकों तक भुनाए जा सकने की संभावनाएं हैं। क्या यह दिल मांगे मोर वाली बेलगाम औद्योगिक नीति के रहते नदियों का भविष्य सुरक्षित रह सकता है?
क्या हमारे धार्मिक कर्मकांडों और पाखंड के रहते हुए यह संभव है? क्या उद्योगों को नियंत्रित करने की राज्य की हैसियत बची है? आज जो आशा सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय हरित पंचाट से दिख रही है, क्या उसे धूमिल करने की क्षमता धन-कुबेरों में नहीं है? क्या आस्थाओं और भावनाओं से इतर तथ्यात्मक, व्यावहारिक और वैज्ञानिक आधार पर निर्णय हमारे राजनेता गंगा नदी के संबंध में होने देंगे?

’श्याम बोहरे, बावड़िया कलां, भोपाल

 

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