आस्तिक कहते हैं कि भगवान के अनेक रूप हैं, जो जिस रूप में देखना चाहे उसे उसी रूप में दर्शन हो जाते हैं। जिस तरह कमल जोशी को समझ में नहीं आया कि विकास किस चिड़िया का नाम है ‘समझ के बाहर’ (चौपाल, 26 मार्च) उसी तरह सत्तर साल का हो जाने पर अपन को भी दो बातें समझ नहीं आर्इं। एक तो यह कि भगवान कहां पाए जाते हैं? उनके अनेक रूपों में से एक के भी दर्शन इस अधर्मी को अभी तक तो नहीं हुए। दूसरे, विकास आखिर कहें तो किसे कहें, जबकि प्रधानमंत्री से लेकर ग्राम पंचायत के पंच, सरपंच और तो और, ग्रामसभा के सदस्य तक रात-दिन विकास की माला जपते रहते हैं।
ऐसा भी नहीं कि विकास नहीं हो रहा, बिल्कुल हो रहा है। भरपूर हो रहा है। देखिए न, हजारों में वेतन पाने वाले लाखों की संपत्ति बना रहे हैं, वेतन से कई गुना सरेआम खर्च कर रहे हैं। साइकिल पर चलने वाले विधायक-सांसद, मंत्री आदि पद पर आते ही गगन बिहारी हो जाते हैं।
बड़े बांध बनते तो विकास के लिए ही हैं पर लगे हाथ ये हजारों एकड़ जंगल और खेती की जमीन निगल लेते हैं, लाखों किसानों और मजदूरों को बेरोजगार करके शहर के फुटपाथों और झुग्गियों में धकेल देते हैं। अब मेधा पाटकर जैसे सिरफिरे इसे विकास न मानें तो कोई क्या कर सकता है! फोर-लेन, सिक्स-लेन रोड बन रही हैं, जिनके लिए हजारों पेड़ों की बलि दी जा रही है। खेत खत्म होते जा रहे हैं और भी होते ही रहेंगे। इसे भी विकास का दुश्मन मानने वाले ‘मूरख किसान’ को कैसे समझाएं कि यही विकास है। किसान यह गाना क्यों नहीं गाते ‘क्या क्या न सहे हमने सितम विकास की खातिर/ ये जान भी जाएगी सनम विकास के खातिर।’
किसी को समझ में आता हो तो इस मूढ़-मति को भी समझा दे कि अगर एक गांव में कारखाना लगने से रोजगार मिल जाए, लोगों की आमदनी बढ़ जाए, पक्के मकान बनें, टीवी आ जाए जिसमें युवा ‘ये दिल मांगे मोर’ या ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ की धुन पर थिरकते हुए पेप्सी कोला, कोका कोला और इसी तरह के शीतल पेय पीने लगें। फल, सब्जियों, दूध, दही, मट्ठा का उपयोग कम होकर बर्गर, पित्जा सरीखे ‘फास्ट फूड’ का उपयोग अधिक होने लगे। जुआ-सट्टा होने लगे, शराब की खपत बढ़ जाए, तंबाकू और गुटखे का धंधा चमकने लगे, झगड़े ज्यादा होने लगें, कोर्ट-कचहरी होने लगे, खेतों में रासायनिक खाद और कीटनाशकों की भरमार होने लगे जिसके कारण किसान कर्ज में डूबने लगें और…।
पहले से ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार होने लगें, महिलाओं की प्रताड़ना, मजदूरों का शोषण अबाध गति से होने लगे, कारखानों और वाहनों के जहरीले धुएं से बीमारियां होने लगें तो भी इसे गांव का विकास मानें? राज्य अपना जन-कल्याणकारी स्वरूप खोता जाए और बाजार का गुलाम होता जाए तो भी इसे विकास मानो वरना सरकार नाराज हो जाएगी!
श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल
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