इन दिनों अलग-अलग जगह जाकर कई युवाओं से मिलने का अवसर मिला। सभी ने देश-दुनिया को बदल देने के अपने-अपने तरीके बताए।

किसी ने लोकतंत्र को अरस्तु की तरह ‘गधातंत्र’ कहा तो कोई नेताओं को कोसता नजर आया और कुछ ने तो मौजूदा स्थिति को ही सर्वश्रेष्ठ करार दिया। लोगों में मूलत: मुझे जो द्वंद्व समझ आया वह यह कि कोई भी अपने से अलग विचारों को सुनने के लिए तैयार नहीं था।

ऐसा लग रहा था कि संसार का नब्बे प्रतिशत दिमाग यहीं आ गया हो। पर शायद यह उनकी उम्र की नजाकत है। टैगोरजी ने ठीक ही कहा है कि ‘आयु सोचती है और जवानी करती है’।

चाहे जो भी हो, लेकिन एक बात लगभग सत्य है कि किसी नौजवान को भ्रष्ट करने का पक्का तरीका यह है कि उसे सिखाया जाए कि वह अपने से अलग सोचने वालों की तुलना में खुद उसके जैसा सोच रखने वालों का अधिक सम्मान करे। क्योंकि वह उम्मीद करने में बहुत तेज होता है इसलिए आसानी से धोखा खा जाता है।

आज हम सबसे ज्यादा युवा देश होने का दावा करते हुए कहते हैं कि आने वाले समय में हम चीन से भी आगे निकल जाएंगे। लेकिन कैसे?

क्या सिर्फ साठ प्रतिशत युवा होने का ढोल पीटने से ही सभी तस्वीरें बदल जाएंगी? युवाओं की बढ़ती संख्या सुखद होने के साथ-साथ चुनौती भी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि इस युवाशक्ति का ठोस और सही इस्तेमाल कैसे किया जाए?

धीरेंद्र गर्ग, सुल्तानपुर

 

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