आजकल कुछ दिनों के अंतराल पर विश्व के किसी न किसी भू-भाग में भूकम्प के झटके महसूस किए जा रहे हैं। हर साल दुनिया के कुछ हिस्सों को भीषण भूकम्प से पैदा होने वाले विनाश का सामना करना पड़ता है। खासकर, पिछले आठ-दस वर्षों में जिस प्रकार भूकम्प की घटनाओं में वृद्धि हुई है, वह निश्चित तौर पर पूरे विश्व और प्राणी जगत के लिए चिंता का विषय है। पिछले दस साल के आंकड़ों पर गौर फरमाया जाए तो साफ प्रतीत होता है कि हम किस विभीषिका की ओर आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ा रहे हैं।

पिछले दस साल यानी 2006 से 2015 तक के आंकड़े देखें, तो इस बीच पृथ्वी को 392 बार ऐसे भूकम्पों का दंश झेलना पड़ा, जिनकी तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6.5 से 9.0 के बीच मापी गई। इस मामले में 2016 का ग्राफ भी पीछे नहीं दिखता है। इस वर्ष भी अब तक सोलह बार इसी तीव्रता से धरती डोल चुकी है। लेकिन चौंकाने वाली बात है कि इन सोलह भूकम्पों में से आठ सिर्फ इसी अप्रैल माह में आए हैं। वैज्ञानिकों की मानें तो 6.5 से 9.0 या उससे अधिक तीव्रता वाले भूकम्प तबाही लाने वाले साबित होते रहे हैं।

पिछले वर्ष 25 अप्रैल को नेपाल में, और हाल में दक्षिण अमेरिकी देश इक्वाडोर में आया 7.8 की तीव्रता का भूकम्प हमें यह बताने के लिए काफी है कि आने वाले दिनों में अगर और भी ऐसे भूकम्प आए तो वे निश्चित तौर पर बहुत प्रलयंकारी होंगे। मुख्यत: अगर भारत और हिमालय क्षेत्र की बात की जाए तो दुनिया भर के भूगर्भशास्त्री अनेक अवसरों पर हिमालय क्षेत्र में अधिक तीव्रता वाले भूकम्प की भविष्यवाणी करते रहे हैं। इसमें दिल्ली, बिहार जैसे विशाल आबादी वाले उत्तर-पूर्व के अनेक राज्य शामिल हैं। लेकिन प्रश्न है कि क्या हम उस दिन के लिए तैयार हैं जब नेपाल जैसी प्रलय हमें दुबारा देखने को मिलेगी? क्या हमारे आपदा प्रबंधन की तकनीक इतनी मजबूत और विकसित है कि इन भूकम्पों से कम से कम वक्त में निपटा जा सके और इससे उबरा जा सके?

नेपाल हमारी तुलना में कहीं अधिक छोटा और पिछड़ा देश है। अगर ऐसी स्थिति में नेपाल के पास भूकम्प से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे तो यह बात समझ में आती है। पर अगर कभी भारत में ऐसी स्थिति पैदा होती है और हम उससे निपटने में नाकाम रहते हैं तो निश्चित ही यह निराशाजनक होगा। पहले भी हम 1991 में उत्तरकाशी और फिर 2001 में गुजरात में भूकम्प से उपजी आपदा झेल चुके हैं। पर अब हमें नींद से जाग जाना चाहिए, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। हमें चेतने की जरूरत है। हमें वैज्ञानिकों के साथ मिल कर जतन करने होंगे। भूकम्प जैसी आपदा को रोका तो नहीं जा सकता। हां, इसके प्रभाव को अवश्य कम किया जा सकता है। बस जरूरत है कि हम इसके प्रति जागरूक हों और औरों को जागरूक करें।
’विमल ‘विमर्या’, देवघर, झारखंड</p>