राजस्थान में चल रहे राजनीतिक संकट के बीच राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष द्वारा बागी विधायकों को ‘दलबदल विरोधी कानून’ के तहत अयोग्यता नोटिस जारी किया गया है। इसको लेकर बागी कांग्रेसी नेता सचिन पायलट और अठारह अन्य असंतुष्ट विधायकों ने अयोग्यता नोटिस को उच्च न्यायालय में चुनौती दी है। बागी विधायकों का तर्क है कि विधानसभा के बाहर कुछ नेताओं के निर्णयों और नीतियों से असहमत होने के आधार पर उन्हें संसदीय ‘दलबदल विरोधी कानून’ के तहत अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है। विधानसभा सदस्यों की वैधता (पार्टी बदलने के आधार पर अयोग्यता) नियम, 1989 और संविधान की दसवीं अनुसूची की धारा 2 (1)(ए) को चुनौती देने के लिए बागी सदस्यों ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई है। दलबदल कानून में साफ है कि स्वेच्छा से एक राजनीतिक पार्टी की सदस्यता का त्याग करने पर सदस्य दलबदल कानून के तहत अयोग्यता के लिए उत्तरदायी होगा।
पिछले कुछ सालों में देश भर में इस तरह के मामलों में दलबदल विरोधी कानून पर खूब बहस हई है। 2016 में उत्तराखंड में नौ कांग्रेस विधायकों ने पाला बदला और भाजपा विधायक दल ने बहुमत का दावा किया। राज्यपाल केके पॉल ने निर्धारित समय में कांग्रेस को बहुमत साबित करने को कहा और वहां कांग्रेस के विरोध के बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। दसवीं अनुसूची को 1985 में 52 वें संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में डाला गया था। इसमें कहा गया है कि विधायकों को सदन के किसी अन्य सदस्य द्वारा याचिका पर आधारित विधायिका के पीठासीन अधिकारी द्वारा दलबदल के आधार पर अयोग्य ठहराया जा सकता है। दलबदल के आधार पर अयोग्यता के रूप में प्रश्न पर निर्णय ऐसे सदन के अध्यक्ष या अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होता है।
ये कानून संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों पर लागू होता है। यदि किसी राजनीतिक दल से संबंधित सदन का सदस्य स्वेच्छा से अपनी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है या अपने राजनीतिक दल के निदेर्शों के विपरीत वोट नहीं देता है या विधायिका में वोट नहीं करता है, और यदि सदस्य ने पूर्व अनुमति ले ली है, या इस तरह के मतदान या परहेज से पंद्रह दिनों के भीतर पार्टी द्वारा निंदा की जाती है, तो सदस्य को अयोग्य घोषित नहीं किया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने 21 जनवरी 2020 के आदेश में अयोग्यता के निर्णय के लिए उचित समय अवधि के बारे कई बातें कहीं है। जब तक कि “असाधारण परिस्थितियां” नहीं हो तो दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता याचिकाएं तीन महीने के भीतर तय की जानी चाहिए। एक उचित समय अवधि के भीतर स्पीकर द्वारा निर्णय देने में विफलता अदालत को अयोग्यता मामले में हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्यता याचिका पर फैसला करने के लिए संसद से स्वतंत्र और स्थायी निकाय पर विचार करने के लिए कहा था, जिसके लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता है।
ऐसे समय में जब पिछले साल लोकतंत्र सूचकांक में भारत काफी नीचे आ गया है, आज संसद से यह अपेक्षा की जाती है कि वह इन सबको सुधारने और मजबूत करने के लिए कदम उठाए। समयानुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दलबदल कानून में संतुलन बनाए रखने के लिए कानून में आवश्यक बदलाव किये जाने की पुरजोर आवश्यकता है।
’सत्यवान सौरभ, दिल्ली विवि, दिल्ली
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