दिल्ली के विधायकों के वेतन-भत्ते और पेंशन में प्रस्तावित वृद्धि को लेकर मीडिया में बहुत चर्चा हुई है। कुछ विश्लेषक इसे चार सौ फीसद वृद्धि बता रहे हैं। कुछ समाचार चैनलों का कहना है कि इस वृद्धि से दिल्ली के विधायकों का वेतन प्रधानमंत्री से भी अधिक हो जाएगा। 1975 में दिल्ली में ‘द कॉमनवेल्थ (राष्ट्रमंडल) पार्लियामेंट्री एसोसिएशन’ की एक बैठक हुई थी। तब तत्कालीन लोकसभा महासचिव एसएल शकधर ने एक किताब लिखी थी- ‘द कॉमनवेल्थ पार्लियामेंट्स’। इस पुस्तक के परिशिष्ट-दो में वे आंकड़े दिए गए हैं, जो राष्ट्रमंडल देशों के सांसदों को मिलने वाले वेतन-भत्ते, आवास, चिकित्सा सुविधा, पेंशन आदि से संबंधित हैं।
भारत के विधायक और सांसद प्राय: वाइट राष्ट्रमंडल (आस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड और इंग्लैंड) के सांसदों को मिलने वाली सुविधाओं से अपनी तुलना करके देखते हैं। यह तुलना इसलिए बेमानी है कि हर देश की प्रतिव्यक्ति आय, खर्चे, महंगाई और अन्य कारणों से इस तुलना का कोई महत्त्व नहीं है।
भारत में अंग्रेजी राज के समय वायसराय या गवर्नर काउंसिलों के सदस्यों को जो भत्ते या वेतन मिलता था, उसे स्वतंत्र भारत में भी जारी रखा गया, हालांकि यह आवश्यक नहीं था, क्योंकि वायसराय या गवर्नर काउंसिल के सदस्य विदेशी थे, वे इस देश में शासक थे और उन्हें लूट की खुली छूट थी। आजाद भारत में इस प्रकार के किसी वेतन, भत्ते और पेंशन की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि भारत ने गांधी को अपना राष्ट्रपिता घोषित किया था और यहां के नेतागण गांधी के आदर्शों की दुहाई देते हैं। भारत के सांसदों को दिल्ली में बड़े-बड़े बंगले आवास के लिए मिलते हैं, जबकि उनका तीन चौथाई समय उनके निर्वाचन क्षेत्र में बीतना चाहिए।
इंग्लैंड की तर्ज पर नकल करना इसलिए भी आवश्यक है कि वहां एक चैंबर तो लॉर्डस का है। वे अभिजात वर्ग के हैं। बकौल धर्मपाल, वहां भी ‘लोअर आर्डर’ और ‘अपर आर्डर’ में देश के लोग बंटे हुए हैं। अगर विधायक या सांसद होना जनसेवा है तो फिर इन भत्तों आदि की क्या सार्थकता है? या तो कह दें कि हम पश्चिमीकृत आधुनिक समाज के मूल्यों के अनुयायी हैं तो जितना चाहो वेतन, भत्ते या पेंशन लो और अगर इस बात की कसम खाते हैं कि हम गांधी के अनुयायी हैं, तो कम से कम विधायकी कार्य को व्यवसाय न बनाएं और गांधी के मूल्यों के तहत सादगी और स्वैच्छिक दरिद्रता का मूल मंत्र जपें। मेरे विचार से हमें अपने समाज को किस जीवन-दृष्टि से चलाना है, इसे तय कर लेना चाहिए। (लक्ष्मी नारायण मित्तल, मुरैना)
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पारदर्शी सतर्कता
भारत के विभिन्न मंत्रालयों की ओर से हर साल ‘सतर्कता सप्ताह’ मनाने के विज्ञापनों में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए शिकायतों पर कार्यवाही के आश्वासन छपते हैं। यहां सवाल उठता है कि अगर सतर्कता विभाग ही कार्यशील हो तो हर वर्ष किसी विभाग के यह ‘सप्ताह’ मनाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। विभाग द्वारा दिया जाने वाला विज्ञापन आम जनता को भ्रमित और गुमराह ही करता है। प्रत्येक विभाग वह चाहे भारतीय जीवन बीमा निगम हो, दिल्ली नगर निगम, रेलवे, पुलिस, शिक्षा संस्था, दिल्ली प्रशासन या केंद्र सरकार अथवा राज्य सरकार का विभाग हो, अपने यहां ठीक प्रकार से कार्य प्रणाली को चलाएं तो आम जनता परेशान नहीं हो सकती।
अगर सरकार वास्तव में कुछ करने का इरादा रखती है तो उसे सबसे पहले हर विभाग के विजिलेंस विभाग के कार्य प्रणाली में पारदर्शिता लानी होगी वरना इस तरह के सप्ताह मनाने का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। (रतन सिंह, रामजस कॉलेज, दिल्ली)
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खुदकुशी की खेती
भारत के प्रमुख कृषि प्रधान राज्यों पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और ओड़िशा में सिर्फ खरीफ की फसलों की तबाही से तीन हजार किसान मौत को गले लगा चुके हैं। इस कृषि संकट के संकेत उसी समय मिल गए थे जब अप्रैल में मौसम विभाग ने मानसून में अट््ठासी फीसद बारिश का पूर्वानुमान लगाया था। मौसम विभाग की भविष्यवाणी के बावजूद प्रदेश सरकारें और केंद्र सरकार छह महीने बाद भी कोई प्रभावी कदम नहीं उठा पार्इं? फलस्वरूप दिवाली जैसे त्योहारों के मौके पर किसानों के घरों में मातम मनाया गया।
कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि अन्नदाताओं को आत्महत्या तक पहुंचाने की प्रमुख वजह खेती की लागत बढ़ना और फसल मूल्य का घटना है। इसके अलावा बैंक और साहूकारों द्वारा मिलने वाला महंगा कर्ज, किसानों का खून निचोड़ देता है। मसलन, सूखा प्रभावित और क्षतिग्रस्त फसलों के सर्वे पटवारी करते हैं, इसमें आठ से दस माह का वक्त लग जाता है।
जिन किसानों को मुआवजा मिलता भी है तो लागत से काफी कम। इससे अभावग्रस्त और कर्ज के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठाने को विवश हो जाते हैं। गौरतलब है कि राजनीतिक दलों और सरकार को सत्ता की भूख के आगे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है! क्या हमारा देश ऐसे समय का इंतजार कर रहा है कि लाचार-बेबस किसान, खुदकुशी कर चुके तीन हजार से ज्यादा किसानों के अस्थिकलश लेकर देश की राजधानी में प्रर्दशन करें? (पवन मौर्य, बनारस)
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कालेधन के स्रोत
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि भारत में काला धन रखने वालों के बुरे दिन आ गए हैं। यह राग बहुत पुराना है। दरअसल, हमारे देश में भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि वे बरगद के पेड़ की जड़ जैसी बन गई है। मसलन, पेड़ काटते जाओ, नया उग आएगा। काले धन पर नकेल लगाने के लिए सरकार कानून बनाती है मगर वह लचर होता है या उसमें कोई न कोई खामी रह जाती है। नतीजतन, काले धन वाले आसानी से बच निकलते हैं। मुख्य कारण कानून का अभाव नहीं, बल्कि उसका ठीक तरह से पालन न होना है। वित्तमंत्री ने खुद माना है कि विदेशी काले धन की बात छोड़ो, देश में लोगों के पास इतना काला धन है कि उसकी गणना नहीं की जा सकती। एक बार अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि इस देश में भ्रष्टाचार की जड़ इंस्पेक्टर राज है। जहां इंस्पेक्टर वहीं भ्रष्टाचार।
अगर वित्तमंत्री काले धन को समाप्त करना चाहते हैं तो आयकर रिटर्न भरवाने की जरूरत नहीं। इस देश का हर नागरिक हर साल प्रापर्टी रिटर्न भरे। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक की संपत्ति की हर वर्ष घोषणा का कानून लागू हो, तभी काले धन वालों के बुरे दिन आएंगे। (एसपी गुप्ता, कुरुक्षेत्र)