अदालत ने कहा है कि बंटवारे के बाद दिल्ली दंगे सबसे भयानक हैं। मैं इसमें कहना चाहता हूं कि दंगे चाहे दुनिया के किसी भी हिस्से में हों, भयानक ही होते हैं। जो इन दंगों को झेलता है, उनसे पूछिए कि दंगों की दहशत और उसका दर्द क्या होता है। दंगों की वजह से समाज दो हिस्सों में बंट जाता है। परस्पर विश्वास खत्म हो जाता है। कहते हैं कि वक्त हर जख्म को भर देता है, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं होता।
दंगों के बाद धीरे-धीरे जिंदगी फिर पटरी पर आने लगती है। बाजारों में रौनक लौटने लगती है, जले हुए कारखाने या घर फिर से बसने लगते हैं। लेकिन उन पर लगे हुए दंगों के निशान नहीं मिट पाते। जो जख्म लोगों को लग जाते हैं, कभी नहीं भर पाते। समाज का ताना-बाना बिगड़ जाता है, आपसी भाईचारा खत्म हो जाता है। ये सब सामान्य होने में वर्षों लग जाते हैं। फिर भी एक दूसरे पर संदेह हमेशा के लिए रह जाता है और विडंबना देखिए कि दंगे क्यों हुए, इसकी जिम्मेदारी कभी तय नहीं की जाती।
’चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली</p>
संशय के बीच
राजनीतिक पार्टियों के लिए दलबदल कोई नई बात नहीं। लेकिन 2015 विधानसभा चुनाव में सरकार चुनने के बावजूद सत्ता में हुई फेरबदल झेल चुकी जनता गठबंधन की राजनीति को लेकर संशय में है। महागठबंधन में तेजस्वी मुख्यमंत्री का चेहरा बने हुए हैं, जिनसे उन्हीं के सहयोगी दलों के कुछ नेताओं और समर्थकों को आपत्ति हो सकती है, भले ही चुप रहना उनकी मजबूरी हो। लोजपा केंद्र में एनडीए में शामिल है और बिहार में जदयू की विरोधी। हालिया परिस्थितियां न तो नीतीश कुमार के लिए सहज है और न ही महागठबंधन के लिए।
नीतीश को कोरोना संकट, रोजगार, पलायन आदि मुद्दों पर सरकार विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है तो महागठबंधन को राजद के पुराने कार्यकाल और शीर्ष नेता रहे लालू यादव की अनुपस्थिति का नुकसान उठाना पड़ सकता है। कुल मिला कर मतदाताओं तो फिलहाल के हिस्से संशय की स्थिति ही है। इसके बावजूद मेरा विश्वास है कि चूंकि लोकतंत्र आखिरकार नया रास्ता दे ही देता है, इसलिए बिहार भी इस ऊहापोह से निकलेगा।
’हेमंत कुमार, गोराडीह, भागलपुर, बिहार
मर्यादा का हनन
मध्यप्रदेश में हो रहे उपचुनाव में प्रचार के दौरान आए दिन यह देखने को मिल रहा है कि नेताओं ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए मान-मर्यादा को भूल कर खुले मंच से महिलाओं के खिलाफ अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं और जनता से वोट मांग रहे हैं। लेकिन जनता जिन्हें वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनकर विधानसभा जन कल्याकारी नीतियों और अपने क्षेत्र के विकास के लिए भेजती है, वहीं नेता राजनीतिक लाभ के लिए दूसरों की मर्यादा को ठेस पहुंचाने में कुछ भी संकोच नहीं करते।
क्या गरिमामय पद पर बैठे नेताओं को ऐसी भाषा शोभा देती है? जब चुनाव आते हैं, तब यही नेता जनता से जिताने की अपील करते हैं, पर चुनाव के बाद जनता को अपने हाल पर छोड़ देते हैं। बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, विकास जैसे प्रमुख मुद्दे नेताओं के मुख से गायब हो गए हैं।
’पूनम चंद सीरवी, कुक्षी, मप्र
