आखिरकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को इस बात का अहसास हो ही गया कि पार्टी कहीं न कहीं विपक्ष की भूमिका निर्वाहन में ढीली पड़ती दिखाई दे रही है। तभी उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति और अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालात पर तीन समितियों का गठन किया है। तीनों समितियों की अगुआई पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह करेंगे। इसमें उन नेताओं को भी जगह मिली है जो पिछले दिनों मुखर थे। दरअसल कांग्रेस में बिहार विधानसभा चुनाव में करारी हार को लेकर चर्चा संवाद न करने पर सवाल उठ रहे थे।
वरिष्ठ नेताओं ने कहा था कि अब लोग पार्टी को विकल्प के तौर पर नहीं देखते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए शायद पार्टी के ये रुख सामने आए हों। अगले साल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं। प्रदेश के पार्टी अध्यक्ष काफी मेहनत कर रहे हैं। मुकाबला ऐसे दलों से है जिसका शीर्ष नेतृत्व दृढ़ इच्छाशक्ति से लबरेज है। ऐसे में जनता के बीच यह संदेश जाना ही चाहिए था कि पार्टी हर वर्ग के शोषित, पीड़ित के साथ खड़ी है एवं किसी भी मुद्दे पर उसकी राय में स्पष्टता है।
कुछ दिन पूर्व उत्तर प्रदेश में ऐसी सक्रियता दिखाई भी पड़ी थी। लेकिन फिर पार्टी के सुर मंद पड़ने लगे। बहरहाल अब उम्मीद बंधी है, विशेषकर पत्र विवाद के बाद जनता में जो खराब संदेश गए थे, उसकी भरपाई होगी। हालांकि इसके गलत नतीजे बिहार में देखने को मिले भी,वहां टिकट बंटवारे में जिस अगंभीरता का परिचय दिया गया। उसका परिणाम यह हुआ कि महागठबंधन सत्ता से वंचित रह गया। उम्मीद है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में ऐसे हालात देखने को नहीं मिलेंगे।
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि पार्टी अपने उस मतदाता वर्ग का भी ख्याल नहीं रख रही है, जो उसके परंपरागत वोटर माने जाते हैं। नतीजतन ऐसे निराश हताश लोग अन्य पार्टियों की ओर मुखातिब होने लगते हैं। देश के पुरानी पार्टी के सितारे भले शीर्ष नेतृत्व के ढुलमुल रवैए के कारण गड़बड़ चल रहे हों, लेकिन जिस तरह इस पार्टी की गहरी जड़े हैं, वैसी शायद देश के किसी अन्य पार्टियों की नहीं है। बस नए सिरे से इसे सहेजने की दरकार है।
’मुकेश कुमार मनन, पटना</p>