आज के कई सामाजिक कानून उनकी लड़ाइयों की देन हैं। लेकिन जातीय श्रेष्ठता और वर्चस्व अन्य सुधारों पर हावी होते गए। फिर अंधविश्वासों और रूढ़ियों की जकड़बंदियां समाज पर नए सिरे से और सख्त होकर कसती गर्इं। इसलिए आज यह जरूरी लगता है कि ऐसी रूढ़ परंपरा का प्रतिरोध करने के लिए व्यापक और सतत निर्भयता दृढ़ बनी रहे।
नरेंद्र दाभोलकर ने 1989 में ‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ के नाम से अंधविश्वास विरोधी जनजागरूकता अभियान शुरू किया था। आज महाराष्ट्र के अलावा कर्नाटक के बेलगाम और गोवा में संस्था की तीन सौ से ज्यादा इकाइयां सक्रिय हैं। दाभोलकर की हत्या से उनके कार्यकर्ता स्तब्ध जरूर हुए, लेकिन विचलित होकर बिखरे नहीं। वे आज भी अंधविश्वासों और असहिष्णुता के खिलाफ शहरों, गांवों, कस्बों में लोगों को जागरूक करने की कोशिश करते हैं।
हाल के वर्षों में नकली खबरों, अफवाहों और शांति भंग करने वाली धूर्ततापूर्ण हरकतों के बीच जातीय और धार्मिक विद्वेष ने भी नई परिभाषाएं और नए औजार गढ़ लिए हैं। सैकड़ों उदाहरण लैंगिक असमानता और अंधश्रद्धा के आते रहते हैं। कुछ समय पहले खबर आई थी कि केरल के इडुकी में कथित दैवी शक्तियां हासिल करने के लिए एक आदमी ने अपने परिवार के पांच सदस्यों को मार डाला।
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में एक दंपत्ति ने अपनी छह वर्षीय बीमार बेटी को मार डाला, ताकि उसके बाद स्वस्थ संतान पैदा होगी। डायन कहकर लड़कियों और औरतों को मार देना या उनकी बीमारी ठीक करने के नाम पर बलात्कार करना, दुखद है कि अंधविश्वासों के नाम पर ऐसे अत्याचार थम नहीं रहे हैं।
लोक मान्यताएं और पारंपरिक रीति-रिवाज, स्थानीय जनजातियों और आदिवासियों की लोक-संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। लेकिन उन्हें अलग कर अपसंस्कृति के कुएं में डाला जा रहा है। अपसंस्कृति वह नहीं है जैसा कि शुद्धतावादी मानते हैं। अपनी मूल जीवन-संस्कृति को विरूप करना, अवैज्ञानिक मान्यताओं को बनाए रखना और लोक परंपराओं को धार्मिक जकड़ में फंसा लेना भी अप-संस्कृति के प्रकार हैं।
अंधविश्वास और कर्मकांड का भी एक सफल और विशाल बाजार है। इसके भी शक्तिशाली नियंता हैं। और ये किसी एक धर्म या जाति की नहीं, सभी धर्मों, जातियों में धंस चुकी समस्या है। ऐसे में सचेत समाज कैसे बनेगा? बल्कि उलटे उस समाज की नादानियों, अनभिज्ञताओं और मूर्खताओं का इस्तेमाल करने वाली ताकतें दिनोंदिन समृद्ध और ताकतवर होती जाएंगी। कथित तांत्रिकों और बाबाओं की गिरफ्तारियों के बाद उनके अकल्पनीय साम्राज्य के पर्दाफाश को लोगों ने हैरत और बेयकीनी से देखा है।
फिर अंधविश्वास, अतार्किक मान्यताओं और मिथकों को इतिहास का तथ्य बनाकर पेश करने का खेल तो और भी भयानक है। किताबों की सामग्रियां बदलने के उपक्रम तीखे हुए हैं। मंत्री और नेता अपने बयानों से भ्रमित करते हैं और प्राचीन गौरव के नाम पर मिथकों और आख्यानों की कल्पनाओं को सच की तरह पेश करते हैं। गायों की आक्सीजन निष्कासन और ग्रहण क्षमता हो या जेनेटिक इंजीनियरिंग, या प्राचीन काल का इंटरनेट या डार्विन के सिद्धांत से इनकार, कितने उदाहरण हैं कि चिंता होती है कि आने वाली पीढ़ियों के लिए कहीं हम सिर्फ शर्मिंदगी न छोड़ जाएं!
शैलेंद्र चौहान, प्रतापनगर, जयपुर</p>