गंगा की सफाई के तमाम दावों के बावजूद नतीजा ढाक के तीन पात है। अदालतें कई बार गंगा को प्रदूषण से बचाने में बरती जा रही कोताही पर केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों को फटकार लगा चुकी हैं। मगर गंगा की सफाई का संकल्प बार-बार दोहराए जाने के बाद भी स्थिति जस की तस है। ऐसे में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने केंद्र और राज्य सरकारों से पूछा है कि आप कोई भी ऐसी जगह बता दें जहां गंगा की दशा में कोई सुधार आया हो। गंगा कार्य योजना को शुरू हुए तीस साल हो गए। इस दौरान करीब पांच हजार करोड़ रुपए खर्च हुए। मगर हालत यह है कि हर साल गंगा में गंदगी और बढ़ी हुई दर्ज होती है। इसकी सफाई का काम केंद्र और राज्य सरकारों को मिल कर करना था। इसमें सत्तर फीसद पैसा केंद्र को और तीस फीसद संबंधित राज्य सरकारों को लगाना था।
मगर हालत यह है कि औद्योगिक इकाइयों और शहरी इलाकों से निकलने वाले जल-मल के शोधन के लिए आज तक न तो पर्याप्त संख्या में संयंत्र लगाए जा सके हैं और न औद्योगिक कचरे के निपटारे का मुकम्मल बंदोबस्त हो पाया है। औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला जहरीला पानी जगह-जगह गंगा में सीधे जाकर मिल जाता है। यों कई बार हरित न्यायाधिकरण की फटकार पर औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ कड़े कदम उठाने का मंसूबा जरूर बांधा गया, पर उसका कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ पाया है। वजह साफ है। दरअसल, गंगा कार्य योजना में केंद्र और राज्यों के बीच जरूरी तालमेल अब तक नहीं बन पाया है।
राष्ट्रीय हरित पंचाट का सवाल मोदी सरकार के लिए परेशानी का विषय है। गंगा को प्रदूषण-मुक्त बनाना भाजपा का एक खास चुनावी मुद्दा था। वाराणसी से सांसद चुने गए प्रधानमंत्री खुद इसमें काफी दिलचस्पी दिखाते रहे हैं। अपनी सरकार बनने के बाद मोदी ने उमा भारती की अगुआई में इसके लिए एक विभाग ही गठित कर दिया। उमा भारती गंगा की सफाई को लेकर बड़े-बड़े दावे करती रही हैं, मगर डेढ़ साल में उनके मंत्रालय ने एक भी ऐसा कदम नहीं उठाया है जो हरित पंचाट को संतुष्ट कर सके।
गंगा किनारे के शहरों की बहुत सारी औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला दूषित पानी बगैर शोधन के सीधे गंगा में जाकर मिल जाता है। कायदे से सभी औद्योगिक इकाइयों को अपने परिसर में जलशोधन संयंत्र लगाना चाहिए, मगर इस पर आने वाले खर्च से बचने के लिए उनके प्रबंधक-मालिक नियम की अनदेखी करते रहते हैं। राज्य सरकारों के ढुलमुल रवैए की वजह से उन औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ कोई कड़ा कदम नहीं उठाया जा सका है। राज्य सरकारें ऐसी औद्योगिक इकाइयों के बारे में वास्तविक ब्योरा तक देने से बचती रही हैं। मगर केंद्र का गंगा सफाई महकमा इतना शिथिल क्यों है कि प्रधानमंत्री के संकल्प के बावजूद वह अब तक कोई बड़ा अभियान नहीं छेड़ पाया है। (अनिल धीमान, नंदनगरी, दिल्ली)
………………………………………………
सामंती मानसिकता
मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार की मंत्री कुसुम सिंह मेहदेले से एक बच्चे ने एक रुपए की भीख मांग ली, तो इस मंत्री ने उसके सर पर लात दे मारी और गार्ड ने उस मासूम को उठा कर दूर फेंक दिया। दरअसल, सामंती दुर्गुणों से भरपूर मानसिकता हमेशा गरीब विरोधी होती है, जो एक रुपया मांगने वाले मासूम बच्चे के सर पर लात मारने में भी संकोच नहीं करती। आज भारत की अस्सी फीसद जनता को ऐसा महसूस हो रहा है, जैसे यह लात उसके सीने पर पड़ी हो। (आमोद शास्त्री, दिल्ली)
……………………………………………….
नेपाल के साथ
इन दिनों भारत और नेपाल के बीच जैसी खटास देखने को मिल रही है वह दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत और नेपाल की दोस्ती पुरानी है। दोनों पड़ोसी तो हैं ही, उनके बीच इतिहास और सभ्यता-संस्कृति से लेकर बहुत कुछ ऐसा है जो साझा है। नेपाल से भारत का जैसा रिश्ता रहा है, वैसा किसी और देश के साथ नहीं। दोनों की सीमा खुली हुई है। भारत ने नेपालियों को अपने यहां रहने, शिक्षा ग्रहण करने और काम करने की छूट दी हुई है। एक मैत्री संधि, जैसी किसी और देश के साथ नहीं है, दशकों से कायम है।
नेपाल सरकार और वहां की बड़ी पार्टियों की तरफ से आए ताजा बयानों को संबंधों की इस पृष्ठभूमि के बरक्स देखें, तो हालत और भी असामान्य नजर आएगी। सामान की आपूर्ति बाधित रहने से क्षुब्ध नेपाल ने पहले तो संयुक्त राष्ट्र से भारत की शिकायत की, और फिर दिल्ली में उसके राजदूत दीप कुमार उपाध्याय ने भारत को धमकी दे डाली। उपाध्याय ने कहा कि भारत पेट्रोलियम और अन्य जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति में बाधा डाल कर नेपाल को इस तरह से मजबूर न करे कि उसे तमाम दिक्कतों के बावजूद चीन की तरफ जाना पड़े। क्या सचमुच भारत ने नेपाल को ऐसी स्थिति में डाल दिया है? यह सही है कि नेपाल के लोग कुछ समय से रोजमर्रा की कठिनाइयां झेलते रहे हैं, पर इसके लिए भारत नहीं, नेपाल की आंतरिक परिस्थितियां जिम्मेवार हैं। (आबिद हुसैन, अमुवि, अलीगढ़)
……………………………………………
महंगी दाल
इन दिनों आसमान छूती कीमतों की वजह से साधारण आमदनी वाले लोग दाल खरीदने से हिचकने लगे हैं।दालें प्रोटीन और पौष्टिकता का महत्त्वपूर्ण जरिया हैं। उनमें कटौती या पौष्टिक भोजन में कमी से आखिरकार व्यक्ति की सेहत प्रभावित होती है। इससे न केवल एक व्यक्ति, बल्कि समूचे देश के मानव विकास सूचकांक पर विपरीत असर पड़ता है।
फिलहाल दालों की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी से निपटने के लिए सरकार ने जमाखोरी करने वाले व्यापारियों के गोदामों पर छापा मारने का अभियान छेड़ा हुआ है। दालों के वायदा कारोबार को भी फिलहाल स्थगित किया गया है। जमाखोरी किसी भी खाद्यान्न की महंगाई का सबसे बड़ा कारण रहा है। लेकिन शायद ही कभी बाजार में वस्तुओं की कीमतें मनमाने ढंग से तय करने वाले बड़े कारोबारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई की जाती है। मुद्रास्फीति के गिरते आंकड़े दिखा कर सरकार महंगाई के काबू में होने का दावा करती है।
लेकिन सच यह है कि खाने-पीने की अनिवार्य चीजों के ही बाजार-भाव मुद्रास्फीति के आंकड़ों की हकीकत बताने के लिए काफी हैं। जाहिर है, दालों की कीमतों पर काबू पाने और सामान्य लोगों की थाली में फिर से दालें मुहैया कराने के लिए एक ठोस नीति और उस पर सख्ती से अमल की जरूरत है। इसके बिना कोई स्थायी नतीजे हासिल नहीं किए जा सकते। (प्रियंका गुप्ता, कवि नगर, गाजियाबाद)