हाल ही में एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में फिल्म अभिनेत्री तनिष्ठा चटर्जी के रंग का मजाक उड़ाया गया। यह एक भद्दे किस्म का मजाक था जो इंगित करता है कि भारत, जहां ‘विविधता में एकता’ की बात बड़ी मुखरता से की जाती है, अब भी अपराध और दंड रंग भेद की ओछी मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाया है। तनिष्ठा चटर्जी पर ऐसी टिप्पणी तो छोटी-सी बानगी भर है। इसी वर्ष मई में कांगो गणराज्य के मसोंदा केतंदा ओलिवर नमक शख्स की दिल्ली में कुछ लोगों ने इसलिए हत्या कर दी कि वह अश्वेत था। तंजानिया के छात्र पर बंगलुरु में हमला और ऐसी ही अन्य घटनाएं शर्मनाक हैं। भारत विश्व के सर्वाधिक नस्लीय हिंसा और टिप्पणी वाले शीर्ष दस देशों में शुमार है। विडंबना है कि हमारा काले रंग के प्रति बीमार नजरिया ही रंग गोरा करने के ठगी के गोरखधंधे को बढ़ावा दे रहा है। सवाल है कि हमारी परोपकार या अतिथि देवो भव: की परंपरा कहां खोती जा रही है?

तनिष्ठा चटर्जी के रंग का मजाक बनाए जाने का दूसरा पहलू यह है कि भारतीय टीवी कार्यक्रम सामग्री संकट से जूझ रहे हैं। शिक्षाप्रद और सादगी भरे कार्यक्रम विलुप्त हो रहे हैं और पश्चिमी देशों की तर्ज पर अश्लीलता और भद्दापन परोसा जा रहा है। क्या भारत संवेदनशील न होकर संवेदनहीन हो चला है? इन सब सवालों का जवाब नहीं तलाशा गया तो विश्व पटल पर भारत की छवि धूमिल हो जाएगी।
’नवीन राय, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश</p>