आमतौर पर राजनीतिक संदर्भों में व्यक्ति विशेष के विचारों से अभिप्रेरित होकर हम अपने विचार निश्चित करते हैं। लेकिन जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हो रहा है, नागरिकों की तर्कशक्ति में आशातीत परिपक्वता भी परिलक्षित होती है। ऐसी स्थिति को सुखद कहा जा सकता है, क्योंकि किसी भी विषय पर गहन वैचारिक मंथन के बाद प्राप्त किए गए निष्कर्ष समाज की दशा और दिशा को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। लेकिन जब ऐसे निष्कर्ष किसी अन्य पर थोपने के किसी भी स्तर पर प्रयास किए जाते हैं, तब वैचारिक टकराव परस्पर कटुता का कारण बन जाता है। दरअसल, इस स्थिति से बचने के प्रयास होना चाहिए। इस संदर्भ में सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि वैचारिक टकराव भी सकारात्मक परिवर्तन के कारक सिद्ध हुआ करते हैं।

इसमें संदेह नहीं कि नागरिकों की तर्कशक्ति में आमूलचूल परिवर्तन के परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अलग-अलग विचारधारा को देश-प्रदेश का नेतृत्व करने का अवसर मिला है। इसे हम नागरिकों की राजनीतिक चेतना के रूप में भी परिभाषित कर सकते हैं। आमतौर पर देश-प्रदेश के नेतृत्व की विचारधारा के आधार पर आम नागरिक अपना अभिमत सुनिश्चित करते हैं। लेकिन नागरिकों का ऐसा वर्ग भी है जो गहन वैचारिक मंथन के बाद मताधिकार के माध्यम से देश-प्रदेश की दशा और दिशा को सुनिश्चित करता है। स्पष्ट रूप से ऐसी जागृति लोकतंत्र की बुनियाद को और भी अधिक सशक्त आधार देने में प्रबल रूप से सहायक सिद्ध हो रही है। इन सब के मूल में मतभिन्नता के चलते ही आखिर परिवर्तन को स्वीकार किया गया है।

दरअसल, विचारधारा के टकराव से भी नए निष्कर्षों को प्राप्त करने में सफलता मिलती है। यही कारण है कि हमने प्रत्येक रीति-रिवाज और परंपराओं को तार्किक दृष्टि से आकलित करने की दृष्टि प्राप्त की है। परिवर्तन के दौर में दुनिया में चाहे जितने परिवर्तन आए, लेकिन हम अपनी मूलभूत सभ्यता और संस्कृति से निरंतर जुड़े रहे हैं। आज भी धर्म-अध्यात्म के क्षेत्र में दुनिया भर की चहल-पहल स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। माता-पिता के संस्कार बच्चों में परिलक्षित हो रहे हैं। राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में जितने भी परिवर्तन हुए हैं, उनके मूल में कहीं न कहीं वैचारिक असहमतियां किसी न किसी रूप में अवश्य रही हैं। कुल मिलाकर मुद्दे की बात यह कि वैचारिक मतभिन्नता का सदैव स्वागत किया जाना चाहिए।
’राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास मप्र

बेघर लोग
जिनके पास ठंड से बचने के लिए घर के साथ तमाम संसाधन और सुविधाएं मौजूद हैं, उनके लिए यह मौसम असुविधाजनक नहीं है। पर देश में आज भी एक बड़ी आबादी अभावों के बीच जीती है। उन लोगों के लिए हर बार कड़ाके की ठंड चुनौती-सी बन जाती है। उत्तर भारत के कई शहरों के साथ दिल्ली और उसके आसपास ऐसे लाखों लोग हैं, जिनके पास अपने आशियाने या उचित गरम कपड़े नहीं हैं। बड़ी संख्या में लोग न्यूनतम तापमान में खुले आसमान के नीचे रातें बिताने को मजबूर हैं।

हर बरस, ऐसे बेघर लोगों के लिए सरकार और सामाजिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में रैन बसेरों का इंतजाम किया जाता है। उन्हें ओढ़ने और पहनने के लिए गरम कंबल-कपड़े भी वितरित किए जाते हैं। रात्रि में जगह-जगह अलाव जलाए जाते हैं। लेकिन पिछले कुछ बरसों की सर्दियों मे हुए इस तरह के इंतजाम यही बताते हैं कि ये सब कामचलाऊ होते हैं या फिर आवश्यकता के हिसाब से बहुत ही कम होते हैं। इन रैन बसेरों मे बदइंतजामी काफी होती है। जाहिर है, सर्दी से बचाने के लिए जो भी सरकारी और सामाजिक कार्य हों, उन्हें कागज पर दिखाने के साथ जमीनी हकीकत में भी बदले जाने की जरूरत है, ताकि ठंड से कोई बेवजह मौत न हो।
’नरेश कानूनगो, गुंजुर, बंगलुरु, कर्नाटक