क्या केंद्र और प्रदेश की सरकारें बेरोजगारों को मुफ्त में नौकरी के आवदेन भरने का प्रावधान नहीं कर सकतीं? गरीब बेरोजगार युवा नौकरी के लिए भारी शुल्क कैसे भरते हैं, यह वही जानते हैं। सरकार रिक्तियां निकाल कर बेरोजगारों को रोजगार देने की कोशिश करती है या फिर अपने खजाने की भरपाई करने की कोशिश करती है? कोई निजी कंपनी जब नौकरी के लिए आवेदन मांगती है तो शायद वह भी परीक्षा शुल्क नहीं लेती होगी।
इसी तरह क्या सरकार अपने खर्चे पर नौकरियों के लिए बेरोजगारों की भर्ती नहीं कर सकती? जो खर्चा परीक्षा कराने पर होता है, उसका भार सरकार को बेरोजगार लोगों के कंधे पर डालने पर जरा भी संकोच नहीं होता। सरकारी विभागों में जब कोई नौकरी का विज्ञापन निकलता है, तो कुछ बेरोजगार नौजवान उसके लिए इस करके आवेदन नहीं करते, क्योंकि उसकी फीस बहुत ज्यादा होती है। यह एक ऐसा पहलू है, जिसके बारे में सरकारों को सोचना जरूरी नहीं लगता, जबकि जनकल्याण के सिद्धांतों पर आधारित व्यवस्था में बेरोजगार युवाओं के हित में नियम बनाना सरकार जिम्मेदारी होती है।
सरकारें बेरोजगारों पर परीक्षा फीस के बोझ कम करने का प्रयास करें और भविष्य में किसी भी प्रवेश परीक्षा के लिए ज्यादा फीस न रखी जाए। बल्कि इतनी ही रखी जाए जिससे हर जाति-वर्ग का गरीब से गरीब बेरोजगार भी नौकरी के लिए बिना दिक्कत के आवेदन कर सके। अगर सरकारें गरीबों को मुफ्त का अन्न और धन बांट सकती हैं तो बेरोजगारों को नौकरी के लिए परीक्षा निशुल्क क्यों नहीं उपलब्ध करवा सकती?
राजेश कुमार चौहान, जलंधर, पंजाब।
मतदान का औजार
भारत दुनिया का सबसे विशाल लोकतंत्र है। इसके पंजीकृत मतदाताओं की संख्या दुनिया के कई देशों की कुल आबादी से कहीं अधिक है। उपनिवेशीकरण के दौर में भारत के साथ कई राष्ट्र स्वतंत्रता के क्षितिज पर उदित हुए। उन्होंने भी लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया, पर सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया जितनी शांतिपूर्ण ढंग से भारत में संपन्न हुई, ऐसा शायद ही कहीं देखने को मिला।
आजादी के तुरंत बाद से ही सार्वजनिक वयस्क मताधिकार को अपनाया गया। वह भी तब, जब आधी से अधिक आबादी निरक्षर थी और लोकतंत्र के मायने भी नहीं समझती थी। यह साहसिकता से भरा कदम था। इतना ही नहीं, समय की मांग के अनुरूप कई कड़े निर्णय भी लिए गए जो भारतीय जनतंत्र को परिपक्व बनाते हैं।
संविधान संशोधन के माध्यम से मताधिकार की न्यूनतम आयु इक्कीस वर्ष से घटाकर अठारह वर्ष किया गया और मतदान व मतगणना के दौरान होने वाली अनियमितता और धांधली को रोकने के लिए ईवीएम का प्रयोग शुरू हुआ। साथ ही चुनाव सुधार के दिशा में कई कदम उठाए गए। इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए हाल ही में चुनाव आयोग ने प्रवासी भारतीय मतदाताओं की सहभागिता बढ़ाने के लिए दूरस्थ वोटिंग मशीन (आरवीएम) के प्रयोग को लेकर सभी दलों की बैठक बुलाई। अगर आरवीएम सभी शंकाओं को दूर कर स्वच्छ और ईमानदार मतदान का औजार बन सका तो लोकतंत्र को समावेशी बनाने में मदद मिल सकेगी।
रविराज, गया, बिहार।
राहत की दवा
दवाओं का महंगा होना किसी से छिपा हुआ नहीं है। हालत यह है कि गरीब आदमी की हैसियत तो चिट्ठी पर लिखी दवाओं की कीमत पूछने तक की नहीं रही। ऐसे में बीमारियों का खत्म होना और मरीज का जल्द स्वस्थ होना महज एक कल्पना ही है। लेकिन हाल ही में सरकार ने जरूरी दवाओं की कीमतें सस्ती कर राहत देने की जो कोशिश की है, उससे मरीजों का मर्ज और परिजनों का दर्द कुछ कम अवश्य होगा। महंगाई के इस दौर में जीवन रक्षक दवाओं की कीमतों ने लोगों की मुसीबतें ही बढ़ाई है। कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी के इलाज का खर्च वहन करना किसी मध्यम वर्गीय परिवार के लिए संभव नहीं है तो गरीब तबकों की हैसियत आसानी से समझी जा सकती है।
महंगे इलाज और बदतर आर्थिक हालात से जूझते लोगों के लिए सरकार ने एक राहत भरा कदम उठा कर सराहनीय प्रयास किया है। कैंसर, अस्थमा और बुखार जैसी बीमारियों की दवाएं सस्ती होंगी। राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण ने 128 दवाओं की कीमतों में संशोधन किया है। बहुत मामूली दाम तय किए जाने के बाद अब कई बीमारियों के इलाज सस्ते हो जा सकते हैं। इन दवाओं की बिक्री सरकार द्वारा तय कीमतों पर ही हो सकेगी। कुल मिलाकर देखा जाए तो अगर यह कदम भी परंपरागत रूप से दवा के कारोबार में गड़बड़ियों का शिकार नहीं हुआ तो आम आदमी को थोड़ी राहत मिल सकेगी।
अमृतलाल मारू ‘रवि’, इंदौर।
नाहक विवाद
केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायलय के बीच किसी भी प्रकार के मतभेद अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण हैं। हाल के दिनों में कानून मंत्री द्वारा शीर्ष न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों में प्रचलित कालेजियम पद्धति को लेकर एक पत्र भी लिखा गया है और इस प्रक्रिया में सरकारी प्रतिनिधियों को शामिल करने की वकालत भी की गई है। वास्तव में तो जजों में ‘कानूनी योग्यता’ और ‘ईमानदारी, सत्यनिष्ठा’ ही वे बुनियादी आवश्यकताएं हैं, जिनका होना सर्वाधिक जरूरी है।
अभी तक तो केवल विपक्षी नेताओं द्वारा ही केंद्र सरकार पर सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाया जाता था, लेकिन शायद इतिहास में पहली बार बहुत सारी चीजें उलट रही हैं, बदल रही हैं। इस विवाद को निरर्थक रूप से अधिक तूल देने के बजाय देश के कानून विशेषज्ञों को त्वरित रूप से इस गंभीर मसले का कोई सर्वमान्य हल निकालना चाहिए। इस विषय को विवाद का कारण बनाना किसी भी दृष्टिकोण से समझदारी नहीं है।
इशरत अली कादरी, खानूगांव, मप्र।