देश की संपूर्ण जनता-जनार्दन की सर्वोच्च पंचायत के ठप पड़ने के कारणों में प्रमुख है पाठशाला से निर्मित हमारे कुछ जन-जन की आवाज बने लोगों के व्यक्तित्व में दोषपूर्ण आचरणों का समावेश होना। उन्हें अभी तक यह आभास नहीं हो सका है कि देश की कुल आबादी की तीस प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे रह कर दो जून की दाल-रोटी के जुगाड़ में दम तोड़ रही है तो इससे जनित समस्यायों पर चर्चा करके पीड़ितों को उबारने की चेष्टा हो। कोरोना की विकरालता और विभीषिका ने व्यक्ति के भविष्य को अंधकार में ला दिया है, जबकि दूसरी ओर भीषण बेरोजगारी, पेयजल, बुनियादी स्वास्थ्य एवं शिक्षा अभी भी औसत लक्ष्य से दूर है। कोरोना ने करोड़ों युवा को रोजगारविहीन करके उसके भविष्य को दांव पर लगा दिया है।
हमारे सांसद अगर इन मुद्दों पर सार्थक पहल कर सरकार को इसके निराकरण के लिए रचनात्मक बहस करते तो उनकी छवि में जन आकांक्षाओं का प्रतिबिंब झलकता, लेकिन जो हाल संसद के मंच का हो गया है, वह लोकतंत्र के लालित्य को लील रहा है। संसद की कार्यवाही निरुद्ध होने की जितनी जवाबदेही विपक्ष की है, उतनी ही सरकार की भी है। जब हम गर्व से कहते हैं कि विश्व का सबसे लोकप्रिय लोकतंत्र भारतवर्ष का है तो लोकतंत्र के मंदिर में जिस रूप में संसदीय परंपराओं का आज उल्लंघन हो रहा है, वह भविष्य के लिए गंभीर चेतावनी है। डर यही है कि आत्म प्रवंचना से मुदित हो हम कहीं उस दौर में न आ जाएं जिससे उबरने में हमारी भावी पीढ़ी को असीमित अनिष्ट का खमियाजा भुगतना पड़े।
आज के प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना में देश के विभिन्न वर्गों ने कभी ऐतिहासिक बलिदान दिया है, जिसे आज नजरअंदाज कर हमारे कुछ सांसद जो आचरण अपना रहे हैं, उससे भय यही है कि कहीं ‘लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई’ के दुर्भाग्यपूर्ण काल से हमें सामना न करना पड़े। संसदीय पन्ने गवाह हैं कि बोफर्स मामले में डेढ़ माह, तहलका रहस्योद्घाटन में पंद्रह दिन संसद की सांसें रोकी गई थीं, जबकि पंद्रहवीं लोकसभा के कार्यकाल में कोयला खदान आबंटन और 2-जी मुद्दे पर लोकसभा का करीब चालीस और राज्यसभा का करीब पैंतीस फीसद समय विरोधियों ने नष्ट कर दिया था। अदालतों में 2-जी और बोफर्स मामले आखिर किस नतीजे पर पहुंचे? ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि मामले न्यायालय से तय होने हैं तो संसद का संचालन रोकना कितना सही है।
विपक्ष यह मानकर चल रहा है कि वह शोरगुल और हंगामे से सरकार को बेहाल और बेचैन कर देगा, लेकिन वह अपने कृत्यों के दूरगामी परिणाम के आकलन से अनभिज्ञता में है। संसद की दीवारों से टकराती जनहित मुद्दे आज नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर लोकतांत्रिक मूल्यों को उपहास का मामला बना चुकी है। राजनीति के राग में जब परस्पर वैमनस्यता, ईर्ष्या और कड़वे बोल के भाव होंगे तो संसदीय इकबाल का क्षरण होगा ही।
वर्तमान चिंताजनक स्थिति का दूरगामी संदेश यही है कि संसद चलने के व्यय के अनुपात में लोकतंत्र की जमा पूंजी जो कंगाली के कगार पर है, यह निश्चय ही पुरखों द्वारा स्थापित प्रतिमानों की नींव में घुन लगा रहा है। सरकार द्वारा शोर-शराबे में भी कानूनों को पारित करा कर विजयोत्सव मनाने का कौशल प्रबंधन व्याप्त अराजकता की गवाही भी बन रही है। पक्ष और विपक्ष के इस धींगामुश्ती में असली पराजय जनता-जनार्दन की चिरप्रतीक्षित कल्याणकारी उम्मीदें कालकवलित हो रही हैं, जिसकी चिंता चयनित जनप्रतिनिधियों को कदाचित नहीं हैं।
’अशोक कुमार, पटना, बिहार
मानसूनी रंग
मानसून को आए मुश्किल से दो हफ्ते हुए, पर इस छोटे-से समय में यह हमारे लिए कई मायनों में अभूतपूर्व साबित हुआ। पहले तो मानसून कब आएगा, यही मौसम विभाग के लिए एक जटिल प्रश्न था, क्योंकि अनेक बार मौसम विभाग का अनुमान गलत साबित हुआ और मानसून बाकी वर्षों की तुलना में काफी देरी से आया। और जब आया तो ऐसा कि राजस्थान, मध्य प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक में गांव के गांव और शहर के शहर जलमग्न हो गए। प्रकृति के इस चक्र के समांतर संसद में मानसून सत्र के शुरू होने से पहले ही पेगासस ने दस्तक दे दी।
सड़क से लेकर संसद तक, हर तरफ सिर्फ पेगासस। इसके ऊपर सब स्वाहा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यही हंगामा हो रहा है। बस फर्क सिर्फ इतना है कि हमारे यहां कुछ हल नहीं निकला और इसी के कारण पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। इन सबसे इतर हमारे लिए तोक्यो से अच्छी खबर है। ओलंपिक में भारत का अब तक का यह सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। इस ओलंपिक से भरते खेलों के एक नए युग की शुरुआत होने वाली है और उम्मीद है अब भारत में क्रिकेट का एकाधिकार कुछ कम होगा। इन सब बातों के कारण ही भारत के लिए यह मानसून अपूर्व है।
’मानू प्रताप मीना, लखनऊ, उप्र