कथित तौर पर तमाम समस्याओं पर मंथन करने के बाद पार्टी इस निर्णय पर पहुंची कि राहुल गांधी ही पार्टी का उद्धार कर सकते हैं, इसलिए उन्हें ही फिर से अध्यक्ष बनाया जाए। यह निष्कर्ष हास्यास्पद तो है ही, उससे अधिक बड़ा मजाक यह है कि इस तथ्य से मुंह चुरा लिया गया कि लगभग बीस महीनों में औसतन हर महीने पार्टी चुनाव दर चुनाव हारी। अलबत्ता बैठक का छुपा एजेंडा था राहुल गांधी को अध्यक्ष पद के लिए फिर से पेश करना।
एक समय था जब कांग्रेस के सहयोगी संगठन सेवा दल व युवा इकाइयां न केवल सक्रिय थीं, बल्कि मजबूत भी थीं। युवाओं का जुड़ाव भी था और छात्र संगठन भी अपनी भूमिका बेहतर निभाते थे। बड़े नेता उनसे संपर्क बनाए रखते थे। पिछले छह सालों में नेतृत्व की उपेक्षा के चलते सहयोगी इकाइयां बिखर गईं। युवाओं का समूह कांग्रेस से छिटक गया।
इस स्थिति के लिए काफी हद तक जिम्मेदार राहुल गांधी हैं। उन्होंने अपनी पार्टी के वरिष्ठ अनुभवी नेताओं से सलाह ले कर रणनीति बनाना तो अपनी हेठी समझी ही, उनके अपरिहार्य सुझाव को भी मानने से परहेज किया। पार्टी के कई नेताओं ने उन्हें आगाह भी किया कि प्रदानमंत्री पर व्यक्तिगत हमले पार्टी को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
लेकिन राहुल गांधी की आत्मघाती शैली की राजनीति में कोई बदलाव नहीं आया है। उन्हें अब भी लग रहा है कि वे प्रदानमंत्री को कोस कर जनता में अपनी पैठ बना लेंगे। दुर्भाग्य से उनके दरबारी भी उनकी हां में हां मिला कर उन्हें प्रोत्साहित करते हैं कि आप की ही रणनीति सही है। राजस्थान प्रकरण और लेटर बम मामले में सभी ने देखा कि अशोक गहलोत जैसे नेताओं ने पार्टी के प्रति नहीं, परिवार के प्रति समर्पित होने की बात कही थी।
इस साल तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, असम आदि में विधानसभा चुनाव हैं। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने पकड़ बनानी शुरू भी कर दी है, जबकि कांग्रेस का कहीं अता-पता भी नहीं है। भाजपा के पास दिग्गज नेताओं की पूरी फौज है, जबकि कांग्रेस के पास ऐसे नेताओं की भारी कमी है। दोनों के बीच अंतर साफ- साफ देखा जा सकता है।
फिर भी राहुल गांधी इस अंतर को यदि पाट कर कोई बड़ी लकीर खींचने में सक्षम हो सकें, तो उनकी दूसरी अध्यक्षीय पारी उपलब्धिदायक हो सकती है। इस वक्त कांग्रेस को बड़े पैमाने पर भीतर-बाहर कायाकल्प की जरूरत है।
ब्लाक स्तर तक पार्टी को फिर से खड़ा करना होगा। साथ ही राहुल गांधी को यह भी समझना होगा कि उनका निशाना व्यक्ति नहीं व्यवस्था हो। अगर पिछली हारों से सबक लेकर आगे काम नहीं किया गया तो इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं कि राहुल गांधी फिर अध्यक्ष बने या सोनियां गांधी ही अंतरिम अध्यक्ष बनी रहें।
’सुशील दीक्षित, शाहजहांपुर