सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों के निपटान के लिए केंद्र सरकार ने बारह विशेष अदालतों का गठन करने का फैसला किया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या 1581 सांसदों और विधायकों के खिलाफ 13,680 मामलों की सुनवाई एक साल में सिर्फ बारह विशेष अदालतों के जरिए संभव है? कानून के जानकारों का मानना है कि एक साल में एक विशेष अदालत सिर्फ सौ मुकदमे निपटा सकती है। ऐसे में इन मामलों को निपटाने के लिए एक सौ चालीस विशेष अदालतों की जरूरत होगी।
देश में 1581 दागी छवि वाले जनप्रतिनिधियों में 993 ऐसे हैं, जिन पर गंभीर अपराध, जैसे हत्या, हत्या की कोशिश, यौन शोषण और बलात्कार जैसे गंभीर मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। ऐसी स्थिति में जरूरी है कि दागी जनप्रतिनिधियों के मामलों के निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन तय समय में हो और वे सभी संसाधनों से लैस भी हों। ‘तारीख-दर-तारीख’ के कारण भविष्य में मूर्तरूप लेने वाली विशेष अदालतें फिर कहीं सुस्त न्यायिक प्रकिया का हिस्सा बन कर न रह जाएं।
विडंबना यह है कि अपराधियों का राजनीति में प्रवेश अब संस्थागत तरीके से हो रहा है। लोग पहले अपने इलाके में गुंडागर्दी करके अपराध की दुनिया में अपनी खतरनाक छवि बना कर, किसी आपराधिक घटना को अंजाम देकर या विवाद पैदा करके सुर्खियों में आते हैं, फिर किसी राजनीतिक दल के सदस्य बन जाते हैं। अच्छी बात यह है कि चुनाव आयोग और विधि आयोग ने सजायाफ्ता राजनेताओं के आजीवन चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की सिफारिश की है। लेकिन इसे लागू करते समय यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि सत्ता पक्ष अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इसका इस्तेमाल न कर सके। साफ-सुथरी और बेदाग छवि वाले लोगों को राजनीति की ओर आकर्षित करने और स्वस्थ राजनीतिक माहौल बनाने के लिए व्यापक चुनाव सुधार की आवश्यकता है। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा।
’कैलाश मांजू बिश्नोई, मुखर्जीनगर, दिल्ली</p>