जनसत्ता 17 नवंबर, 2014: महाराष्ट्र की अल्पमत सरकार का ढोंग पूरे देश के सामने आ गया। ‘गुड़ खाए और गुलगुले से परहेज’ की कहावत को चरित्रार्थ करते हुए भाजपाई फडणवीस सरकार ने न बहस कराई, न मत-विभाजन को माना और ऊपर से हल्ले में विश्वास जीत लेने का दावा। यह संसदीय इतिहास की एक विचित्र घटना है। नरसिम्हा राव सरकार की अल्पमत सरकार द्वारा शिबू सोरेन के सहारे विश्वास मत हासिल करने के बदनुमा दाग के बाद मनमोहन सिंह के काल में वामपंथ के समर्थन वापस लेने के बाद नोट के बदले वोट और संसद में नोटों की गड्डियों के लहराने के दृश्य महाराष्ट्र विधानसभा के ताजे उदाहरण के सामने याद आए। जिस एनसीपी, यानी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को मोदी ने चुनावों के दौरान ‘नेशनल करप्शन पार्टी’ की संज्ञा दी, शिवसेना को अलग रखने के लिए उसी एनसीपी का समर्थन अल्पमत फडणवीस सरकार को लेने की मजबूरी और न लेने के नाटक के बीच भाजपा की जम कर किरकिरी हुई। टीवी चैनलों पर बहस में यह बात सामने आई कि विधानसभा में विश्वास मत रखे जाने के समय कांग्रेस और शिवसेना द्वारा मत-विभाजन की बात को सुना ही नहीं गया और ध्वनि-मत से विश्वास मत जीतने की विधानसभा अध्यक्ष ने घोषणा कर दी।

फडणवीस सरकार के विश्वास मतदान के समय यह बात शायद इसलिए अनसुनी कर दी गई, क्योंकि भाजपा के पक्ष में कुल वोटों की संख्या एक सौ बत्तीस से ज्यादा नहीं थी। ये मत सदन में एक सौ पैंतालीस, यानी बहुमत संख्या से कम थे। टीवी चैनलों पर हुई बहस में न भाजपा के प्रवक्ता एक सौ पैंतालीस की संख्या बता पा रहे थे और न एनसीपी का कोई प्रवक्ता यह कह पा रहा था कि विश्वास मत के समय उनकी पार्टी के विधायकों ने बहिर्गमन किया था या समर्थन में हाथ उठाया था।

जिन नैतिक आधारों पर भाजपाई जोर-शोर से कांग्रेसी सरकार और उसके दागी मंत्रियों पर सवाल उठाते थे, अब अपनी सरकार आते ही वे सब हवा हो गए। लोकसभा की कुल संख्या के एक-तिहाई के करीब चुन कर आए दागी सांसदों पर उठते रहे निरंतर सवालों पर भाजपा मौन साधे हुए है। लेकिन हाल ही में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में दागी सांसदों (इसमें नब्बे फीसद भाजपा से संबद्ध हैं) में से जब कइयों ने मंत्री पद की शपथ ली, तो मीडिया में उठे तीखे सवालों पर सरकार को मौन तोड़ना पड़ा। बिना किसी संकोच और शर्म के साथ वित्तमंत्री अरुण जेटली ने फरमाया कि ‘राजनीति में आरोप तो लगते ही रहते है!’

तो क्या यह मान लिया जाए कि भाजपा जब विपक्ष में थी, तो राजनीति से प्रेरित यों ही आरोप लगाती रहती थी? घर में डेढ़ करोड़ की नगदी को लेकर चर्चित रहे भाजपा के सांसद गिरिराज सिंह का मंत्री बनाना, नौकरी में रहते भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करने वाले का मंत्री बन जाना और हर्षवर्धन को हटा नड्डा को स्वास्थ्य मंत्री और गौड़ा को हटा सुरेश प्रभु को रेल मंत्री बनाने का भाजपा के प्रवक्ता जवाब नहीं दे पाए तो इसलिए कि ये भी वही कर रहे हैं जो कांग्रेस करती थी। सच यह है कि भाजपा ने सरकार की नीतियों पर कभी कोई सवाल नहीं उठाए। मीडिया में आई कैग की रिपोर्टों का सहारा लिया और सत्ता में आते ही उन्हें दफना दिया।

हम भूले नहीं होंगे कि नरसिम्हा राव काल में बनी पूंजीपरस्त आर्थिक नीतियों को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने रफ्तार दी तो मनमोहन सिंह के लाख चाहने पर भी उनके काल में इन नीतियों की धीमी पड़ती रफ्तार को अब नरेंद्र मोदी ‘हाई स्पीड’ पर ले आए हैं। न कांग्रेस की नीतियां जनहित में थी और न भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार की हैं। दोनों ही पूंजीशाहों के कारिंदे हैं।

’रामचंद्र शर्मा, तरूछाया नगर, जयपुर

 

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