जनसत्ता 17 नवंबर, 2014: यह सुनने में अजीब लगता हैं कि ‘तुझे क्या!’ लेकिन इसका प्रयोग लोग जीवन में किसी न किसी संदर्भ में अक्सर करते हैं। हम भारतीय शायद चिंतन और सिद्धांत के स्तर पर उच्च विचार रखने के आदी हैं, पर व्यवहार में विचार क्यों नहीं बदल पाते, यह सोचने का विषय है। इसे किसी भी क्षेत्र में देखा जा जकता है। पिछले हफ्ते मैं बस में सफर कर रही थी। मेरे बगल में बैठी एक खूबसूरत महिला कुछ खाने के साथ-साथ फोन पर बतिया भी रही थीं। वह किसी को बहुत अच्छे से नरेंद्र मोदी के सफाई अभियान का मुद्दा बता रही थीं। दिखने और बात करने के ढंग से वे अच्छे और उच्च स्तर के घर से लग रही थीं। लेकिन जब उनकी बात खत्म हुई और उनके खाने का रैपर खाली हुआ तो उसे उन्होंने बस की खिड़की से बाहर फेंक दिया। जब मैंने उनसे कहा कि आप इस खाली रैपर को किसी कूड़ेदान में भी डाल सकती थीं, ऐसे बीच सड़क पर खिड़की से बाहर फेंकना क्या सही है, तो उन्होंने इतरा कर और गुस्से में कहा- ‘तुझे क्या? बहुत ज्यादा समझदार मत बनो…! अपना काम करो!’
दरअसल, हममें से ज्यादातर लोग व्यावहारिक स्तर पर अपने ही विचार के प्रतिकूल आचरण करते हैं और टोकने वाले को कह देते हैं- ‘तुझे क्या? तुमसे मतलब!’ आखिर हम सभी अपने नागरिक कर्तव्य कब समझेंगे!
’उर्वशी गौड़, भजनपुरा, दिल्ली
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta