नीतीश कुमार ने बुधवार (26 जुलाई) को बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इसके साथ ही उन्होंने एक तीर से कई शिकार कर लिए। वह पिछले कई महीनों से भाजपा से करीबी के संकेत दे रहे हैं। 2014 मेें जिस तेवर और तल्खी के साथ उन्होंने नरेंद्र मोदी का विरोध किया था और उसी नाम पर एनडीए से नाता तोड़ दिया था, वह तेवर मोदी की प्रचंड जीत के बाद से ही नरम पड़ने लगा था। 20 महीने पहले जब नीतीश मुख्यमंत्री बने थे उसके कुुुछ महीनों के बाद उनका भाजपा-मोदी विरोध कमजोर ही पड़ता गया। असल में कुमार को राजद और कांग्रेस के साथ गठबंधन मजबूरी में ही करना पड़ा था। जाहिर है, मजबूरी बिहार विधानसभा चुनाव में सत्ता मेें वापसी की थी। पर गठबंधन का दावं उल्टा पड़ा। राजद ज्यादा फायदा उठा ले गया। नीतीश सीएम तो बन गए पर लालू का संख्याबल लगातार उन्हें दबाता रहा। पटना के राजनीतिक गलियारों की खबर रखने वालों को पता है कि लालू कुछ-कुछ उसी अंदाज में सरकार चलवाने लगे जैसा वह खुद सीएम रहते हुए चलाते थे। ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिए इलाकों पर दावेदारी ठोंकी जाने लगी। मंत्री-विधायक कभी भी किसी कारोबारी-पूंजीपति के यहां धमकने लगे। नीतीश ने शराबबंदी की तो कई सफेदपोश रसूख के दम पर गलत तरीके से शराब बेचकने-पीने में व्यस्त रहे। नीतीश को लगने लगा कि यह गठबंधन उनकी छवि पर बहुत भारी पड़ेगा। पर किया क्या जाए? लोकतंत्र में संख्या बल ही सबसे अहम है। सरकार चलाना है तो सहना पड़ेगा। पर इसी बीच एक रास्ता निकला।
लालू परिवार को पहले भाजपा (सुशील कुमार मोदी) और फिर सरकारी एजेंसियों ने ऐसा घेरा कि निकलने का रास्ता नहीं सूझने लगा। मॉल और मिट्टी घोटाले से शुरू हुई बात जमीन और पता नहीं किन-किन घोटालों तक पहुंची। नीतीश के बारे मेें कहा गया कि भ्रष्टाचार के आरोपी डिप्टी सीएम को वह कैसे अपनी सरकार में रख सकते हैं? नीतीश मौन साधे रहे। अचानक इस्तीफे का बम फोड़ दिया। और, इसका ठीकरा लालू प्रसाद यादव पर फोड़ा। कहा- मैंने इस्तीफा तो मांगा ही नहीं था। केवल सफाई मांगी थी। वह भी नहीं दी। देते कहां से। कुुुछ बोलने के लिए होता तब तो। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र लोक-लाज से चलता है। नीतीश ने लाज की फिक्र की, पर अपने संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल नहीं किया। अगर उनके डिप्टी सीएम पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा था तो उन्हें दो में से एक काम ही करना चाहिए था। या तो स्टैंड लेते कि जब तक आरोप साबित नहीं होता, तब तक वह इसकी चिंंता नहीं करेंगे। या फिर, वह तेजस्वी यादव का इस्तीफा लेते। नहीं मिलने पर बर्खास्त कर देते। लेकिन ऐसा करना राजनीतिक रूप से फायदेमंद नहीं होता।
इस्तीफा देकर नीतीश ने अपना राजनीतिक फायदा ही नहीं साधा है, बल्कि लालू के लिए संकट गहरा भी कर दिया है। लालू के लिए अब राजद को सत्ता मेें बनाए रखना लगभग नामुमकिन होगा। उनके बेटों का भविष्य भी चमकदार नहीं रह जाएगा। एक बेटा सरकार में उपमुख्यमंत्री और दूसरा मंत्री पद भोगता रहा है। अब बात शायद विधायकी तक ही सीमित रह जाएगी। आशंका इस बात की भी है कि कानूनी तौर पर भी पूरे लालू परिवार की मुसीबतें अभी और बढ़ेंगी।
नीतीश को इस्तीफे से तात्कालिक फायदा उनकी छवि का भी हुआ है। उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ हैं। इसके लिए वह कुर्सी कुर्बान करने से भी पीछे नहीं हटेंगे। कुछ उसी तरह जैसा उन्होंने नरेंद्र मोदी के नाम पर एनडीए से संबंध तोड़ते वक्त यह संदेश देने की कोशिश की थी कि वह सांप्रदायिकता से समझौता करने वाले नहीं हैं। पर लोकतंत्र में लोक-लाज की बााात करने वाले नीतीश कुमार को इस सवाल का जवाब भी देना चाहिए कि उन्होंने 20 महीने तक भ्रष्टाचार और जबरदस्ती को क्यों सहा। यह बात अलग है कि इन महीनों में भ्रष्टाचार या जबरदस्ती की बात इस तरह जगजाहिर नहीं हुई थी और न ही इस संबंध में किसी कानूनी कार्रवाई की बात सामने आई है।
एक सच यह भी है कि नीतीश भी अब मन ही मन खुद को ‘पीएम मटीरियल’ मानने से इनकार कर चुके हैं। वह अपनी यूएसपी (विकास व पाक-साफ शासन देने वाले) के साथ बिहार में मजबूती से अभी शासन कर सकते हैं। अगर वह भाजपा के साथ मिलते हैं तो उनका भविष्य भी उज्ज्वल हो सकता है और शासन चलाने की अंदरूनी परेशानी (जैसी राजद नेताओं की मनमानी से आती थी) भी कम हो सकती है। अगर भाजपा के साथ सरकार नहीं बनाते हैं और तेजस्वी के इस्तीफे और राजद की मान-मनौव्वल के बाद गठबंधन का नेतृत्व संभालने के लिए राजी हो जाते हैं तो वैसी स्थिति में भी अब नीतीश का पलड़ा भारी रहेगा। वह पहले से ज्यादा स्वतंत्रता से शासन चला पाएंगे। हालांकि, इस विकल्प के सच होने की संभावना न के बराबर है। बहरहाल, लगता है कांग्रेस मुक्त देश के अभियान में भाजपा एक कदम और आगे बढ़ी है। आगे का घटनाक्रम देखना काफी दिलचस्प होगा।