काश, प्रधानमंत्री ने कहा होता कि उनकी सरकार नए सिरे से बनाएगी कश्मीर नीति और उसका आधार होगा कि कश्मीरी अलगावादी तंजीमें जिस किस्म की आजादी मांग रही हैं, वह कभी नहीं मिलने वाली। 

प्रधानमंत्री ने जब पिछले सप्ताह कहा कि उनकी कश्मीर नीति वही रहेगी, जो पूर्व कांग्रेस सरकारों की रही है दशकों से, तो मुझे यकीन हुआ कि इस सबसे पुरानी राजनीतिक समस्या का समाधान अगले पचास वर्षों में भी नहीं हो सकेगा। इसलिए कि पूर्व कांग्रेस सरकारों के कारण ही है यह समस्या। पूर्व प्रधानमंत्रियों ने बार-बार बड़ी से बड़ी गलतियां न की होतीं तो संभव है कि आज कश्मीर की कोई समस्या ही न होती। गलतियों की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि यहां उन सबको गिनाना नामुमकिन है, लेकिन हाल ही की सबसे बड़ी दो गलतियों का उल्लेख काफी होगा।
इंदिरा गांधी ने 1984 में फारूक अब्दुल्ला की सरकार न बेवजह बेवक्त हटाई होती, तो कश्मीरियों को विश्वास हो जाता कि जैसे बाकी भारतवासियों के लिए लोकतंत्र या जम्हूरियत उनका संवैधानिक अधिकार है, उनके लिए भी होगा। याद रखिए कि 1977 तक जितने भी चुनाव हुए कश्मीर में, सब धोखा थे। इंदिराजी की गलती को सुधारा जा सकता था 1986 में अगर राजीव गांधी ने निष्पक्ष चुनाव कराए होते। फारूक उस समय हीरो थे, सो दोबारा जीत जाते जरूर और फिर अगर अगला चुनाव हारते अपनी गलतियों के कारण, तो कोई समस्या नहीं होती, क्योंकि जम्हूरियत की गाड़ी चल पड़ी होती।

ऐसा नहीं हुआ और ऐसा न होने से शुरू हुई ‘आजादी’ की लड़ाई और आतंकवाद का यह सिलसिला। पाकिस्तान ने इसका तबसे फायदा उठाना शुरू किया, लेकिन समस्या उनकी वजह से पैदा नहीं हुई। समस्या पैदा हुई है भारत के प्रधानमंत्रियों की गलत नीतियों के कारण, सो ऐसा कहना बिलकुल गलत था प्रधानमंत्री मोदी का कि वे उन्हीं नाकाम नीतियों को आगे बढ़ाएंगे। पिछले दो वर्षों से लिखती आई हूं मैं कि नरेंद्र मोदी को नए सिरे से बनानी होगी कश्मीर नीति, वरना पचास वर्षों बाद भी संभव है कि कश्मीर के लोग ‘आजादी’ के लिए लड़ते होंगे। मुमकिन यह भी है कि जिहादी आतंकवादी अशांति का लाभ उठा कर कश्मीर घाटी में अपना कट््टरपंथी, खून से रंगा हुआ इस्लाम फैलाते होंगे।
काश, प्रधानमंत्री ने कहा होता कि उनकी सरकार नए सिरे से बनाएगी कश्मीर नीति और उसका आधार होगा कि कश्मीरी अलगावादी तंजीमें जिस किस्म की आजादी मांग रही हैं, वह कभी नहीं मिलने वाली। इस बुनियादी शर्त को स्पष्ट करने के बाद जो भी चाहिए कश्मीर के लोगों को, उनको देने की कोशिश होगी। ऐसा कहते प्रधानमंत्री तो यह भी मुमकिन है कि जिन बच्चों को हमने श्रीनगर की सड़कों पर सुरक्षाकर्मियों को पत्थर मारते देखा है, उनके माता-पिता भी उन्हें समझा कर रोक सकते। ये ऐसे बच्चे हैं, जिन्होंने हिंसा के अलावा अपने जीवन में कुछ नहीं देखा है, क्योंकि अधिकतर पैदा हुए हैं 1989 के बाद।

इनमें कुछ बच्चे इतने छोटे हैं कि उनसे राजनीतिक बातें करना बेकार है। लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में सुरक्षित बैठे अपने देश के कई बुद्धिजीवी इन दिनों कहते फिर रहे हैं कि यह समस्या सिर्फ बातचीत से हल की जा सकती है। कुछ तो तैयार भी हो गए हैं श्रीनगर जाने के लिए, जैसे पहले जा चुके हैं। ये ऐसे लोग हैं, जिनकी कभी हिम्मत नहीं होती बिना सुरक्षा के घाटी में घूमने की, तो अक्सर करते सिर्फ यह हैं कि श्रीनगर के किसी पांच-सितारा होटल में बैठ कर उन्हीं लोगों से मिलते हैं जिनका न हिंसा से वास्ता है और न काबू कर सकते हैं उन बच्चों को, जो बुरहान वानी की हत्या के बाद निकल पड़े हैं सड़कों पर ‘इंडिया’ को कश्मीर घाटी से भगाने।

पिछले सप्ताह जब राज्यसभा में बहस हुई वर्तमान कश्मीर की स्थिति पर, तो और भी मायूसी हुई मुझे, इसलिए कि आखिर में सांसदों का भी सुझाव था कि जल्दी से जल्दी सर्वदलीय जत्था श्रीनगर के लिए रवाना किया जाए आम लोगों की बातें सुनने। भूल गए थे जैसे कि कितनी बार बिल्कुल इस तरह की जत्थे गए हैं और वापस लौटे हैं खाली हाथ।

सो, क्या करना चाहिए अब? कैसी होनी चाहिए मोदी सरकार की नई कश्मीर नीति। एक तो डट के स्पष्ट करना चाहिए इस नीति को कि पाकिस्तान की कोई जगह नहीं है। भारत की यह अंदरूनी समस्या है और इसका समाधान हमको ही ढूंढ़ना पड़ेगा। पाकिस्तान के ज्यादातर लोग भी जान गए हैं बहुत पहले कि कश्मीर घाटी पाकिस्तान का हिस्सा कभी नहीं बनेगी। यह भी जानते हैं वहां के शासक कि रायशुमारी की बातें करना अब बिल्कुल बेकार है।

परिवर्तन अगर होगा तो सिर्फ यह कि शांति दोबारा बहाल करने के बाद ऐसा कोई दिन आ सकता है दूर भविष्य में कि सीमाएं इतनी ढीली की जा सकती हैं कि आना-जाना आसान हो जाएगा। इससे ज्यादा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि भारत के हित में बिल्कुल नहीं है कि जो पाकिस्तानी आतंकवादी भारत में वहाबी इस्लाम कायम करने का प्रयास लगातार करते आए हैं, उनको मौका मिले कश्मीर को केंद्रबिंदु बनाने का।
ऐसा न भारत चाहता है और न ही दुनिया का कोई और गैर-इस्लामी देश। आइएसआइएस बेशक इराक और सीरिया में अपनी खिलाफत हार रहा है, लेकिन इसे किसी दूसरी जगह दोबारा कायम करने के लिए वह पूरी कोशिश में लगा हुआ है। सो, अफगानिस्तान, कश्मीर और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों को एक नया इस्लामी देश बनाने की पूरी तैयारी हो रही है और इस बात को हाफिज सईद और सईद सलाहुद्दीन जैसे लोग अपने हर भाषण में दोहराते हैं। पिछले सप्ताह तो सलाहुद्दीन साहब ने यहां तक कह दिया कि इस लड़ाई में जरूरत अगर पड़ती है परमाणु हथियारों की और पाकिस्तान साथ देता है तो यह भी मुमकिन है। अब समझे, क्यों गंभीर आवश्यकता है एक नई कश्मीर नीति की?