सुशील कुमार सिंह

एक कहावत है कि वह डाक्टर ही है, जो भगवान तक बात पहुंचने से पहले इंसान को बचाने पहुंच जाता है। चिकित्सक का पेशा संवेदनशील होता है। उसका जाति और धर्म से कोई लेना-देना नहीं होता। भारत में चिकित्सक के रूप में करिअर बनाने के उद्देश्य से हर वर्ष लाखों विद्यार्थी मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए नीट परीक्षा देते हैं।

इस साल आवेदकों की संख्या 21 लाख से अधिक

इसी महीने ‘नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट’ यानी नीट 2023 की परीक्षा आयोजित हुई, जिसमें आवेदकों की संख्या इक्कीस लाख से अधिक थी। यह पिछले वर्ष की तुलना में तीन लाख अधिक है। 2021 में चौदह लाख विद्यार्थी नीट के लिए पंजीकृत थे, जबकि 2020 में यह संख्या सोलह लाख और 2019 में पंद्रह लाख थी। आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि एमबीबीएस के लिए लगभग एक लाख सीटें सरकारी और निजी मेडिकल कालेजों में उपलब्ध हैं और वर्तमान में कालेजों की संख्या साढ़े छह सौ से अधिक है। इसके अलावा अन्य मेडिकल पढ़ाई मसलन, दंत चिकित्सा आदि की भी प्रवेश प्रक्रिया नीट के माध्यम से ही संचालित होती है।

देश में 52 हजार सरकारी सीटें, 48 हजार निजी कालेजों में हैं

गौरतलब है कि पूरे देश में महज बावन हजार सीटें सरकारी कोटे की हैं, जहां एमबीबीएस में सरकारी फीस ली जाती है। बाकी अड़तालीस हजार से अधिक सीटें निजी कालेजों के हाथों में हैं। जाहिर है, ऐसे कालेजों में विद्यार्थियों को भारी-भरकम शुल्क अदा करना होता है, जो कुछ कालेजों में तो पूरे साढ़े पांच साल की पढ़ाई में करोड़ रुपए से अधिक हो जाता है। भारत दुनिया का आबादी में सबसे बड़ा देश है और युवा आबादी में भी यह सर्वाधिक है। बारहवीं के बाद आगे की पढ़ाई में चिकित्सा विज्ञान लाखों का सपना होता है। आंकड़े बताते हैं कि भारत के अस्सी फीसद परिवार महंगी फीस के चलते बच्चों को चिकित्सा की पढ़ाई कराने में अक्षम हैं।

देश में सबसे ज्यादा मेडिकल कालेज तमिलनाडु में हैं

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार 2014 से पहले देश में 387 मेडिकल कालेज थे, जो वर्तमान में इकहत्तर फीसद की बढ़त लिए हुए हैं। पहले सीटें महज इक्यावन हजार से थोड़ी ज्यादा थीं, अब यह आंकड़ा एक लाख को पार कर चुका है। पोस्ट ग्रेजुएट सीटों में भी 110 फीसद की वृद्धि हुई गई है। पूरे भारत में तमिलनाडु में सर्वाधिक मेडिकल कालेज हैं, जहां कुल बहत्तर कालेजों में से अड़तीस सरकारी हैं और इनमें एमबीबीएस की पांच हजार दो सौ पच्चीस सीटें हैं, जबकि छह हजार सीटें निजी कालेजों में हैं।

दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र है, जहां कुल चौंसठ में से तीस सरकारी कालेज हैं और उनमें दस हजार से ज्यादा सीटें हैं। यहां भी सरकारी कालेजों में एमबीबीएस की सीटें बामुश्किल पांच हजार हैं। उत्तर प्रदेश देश का सर्वाधिक जनसंख्या वाला प्रदेश है, मगर मेडिकल कालेजों की संख्या में यह तीसरा प्रदेश है, कुल सड़सठ कालेजों में पैंतीस सरकारी हैं, बाकी सभी निजी हैं। सरकारी कालेजों में एमबीबीएस की सीटें बमुश्किल तैंतालीस सौ हैं। इसी क्रम में आंध्र प्रदेश, राजस्थान और गुजरात आदि देखे जा सकते हैं।

इससे यह स्पष्ट है कि चिकित्सा सेवा में प्रवेश की इच्छा रखने वालों की तादाद कहीं अधिक है, जबकि प्रवेश की सीमा बहुत कम है। शायद यही कारण है कि हजारों विद्यार्थी अपने सपने को उड़ान देने के लिए दुनिया के दूसरे देशों में उड़ान भरते हैं। हालांकि इसके पीछे एक मूल कारण सस्ती फीस का होना भी है। दुनिया के कई ऐसे देश हैं, जहां तीस-पैंतीस लाख में पूरी पढ़ाई हो जाती है।

विदेश में चिकित्सा का अध्ययन करने के लिए पात्रता प्रमाण-पत्र प्राप्त करने का शासनादेश जनवरी 2014 से लागू हुआ। तबसे यह संख्या हर वर्ष तेजी से बढ़ रही है। 2015-16 के बीच भारतीय चिकित्सा परिषद द्वारा दी गई पात्रता प्रमाण-पत्रों की संख्या 3398 थी। 2016-17 में यह संख्या 8737 हो गई और बढ़त के साथ 2018 में यह सत्रह हजार को भी पार कर गई, जबकि वर्तमान में यह बीस हजार से पार है। इसका कारण स्पष्ट है, भारत के मुकाबले विदेश में चिकित्सा की पढ़ाई कई मायनों में सुविधाजनक है।

नीट प्रवेश परीक्षा पास करना कुछ के लिए बेहद मुश्किल होता है और अगर इसमें अंक कम हों, तो प्रवेश शुल्क बहुत ज्यादा हो जाता है। विडंबना यह है कि भारत में शिक्षा के प्रति व्यावसायिकता का चौतरफा प्रसार हो चुका है। चिकित्सा की पढ़ाई भी इससे वंचित नहीं है, जबकि इस तरह का अध्ययन केवल डिग्री या पुस्तकों तक सीमित नहीं होता। यह जनता के स्वास्थ्य के साथ-साथ देश की चिकित्सा भी सुनिश्चित करता है।
कई मेधावी छात्र फीस के अभाव में चिकित्सा की पढ़ाई करने से वंचित भी हुए होंगे और आगे यह सिलसिला चलता भी रहेगा, मगर सवाल यह है कि इसका विकल्प क्या है। जो चिकित्सा की पढ़ाई रूस, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, जार्जिया, चीन, फिलिपीन्स, यहां तक कि यूक्रेन जैसे देशों में महज 30-35 लाख रुपए में संभव है, वहीं भारत में इतनी महंगी है कि कइयों की पहुंच में नहीं है।

देश में चौदह लाख डाक्टरों की कमी है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति एक हजार आबादी पर एक डाक्टर होना चाहिए, वहां भारत में सात हजार की आबादी पर एक डाक्टर है। जाहिर है कि ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के काम न करने की अलग समस्या है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1977 में ही तय किया था कि वर्ष 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार होगा, लेकिन वर्ष 2002 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अनुसार स्वास्थ्य पर जीडीपी का दो प्रतिशत खर्च करने का लक्ष्य आज तक पूरा नहीं हुआ। इसके विपरीत सरकारें लगातार स्वास्थ्य बजट में कटौती कर रही हैं।

देखा जाए तो कम चिकित्सक होने की वजह से भी भारत में चिकित्सा की पढ़ाई और चिकित्सा सेवाएं महंगी हैं। जाहिर है, इस पर भी गौर करने की जरूरत है। रोचक तथ्य यह भी है कि विदेशी मेडिकल कालेजों से अध्ययन कर चुके स्नातक चिकित्सक महज बीसद फीसद भारतीय चिकित्सा के मानक पर खरे उतर पाते हैं, बाकी अस्सी प्रतिशत अयोग्य ठहरा दिए जाते हैं और यह एक नए सिरे की बेरोजगारी की खेप भी तैयार कर देता है। गौरतलब है कि विदेशों से मेडिकल की पढ़ाई करके अगर भारत में डाक्टरी करनी है, तो इसके लिए ‘फारेन मेडिकल ग्रेजुएट्स एग्जामिनेशन’ (एफएमजी) पास करने के बाद ही लाइसेंस मिलता है। विफल लोगों का आंकड़ा देखकर पता चलता है कि यह टेस्ट काफी कठिन होता है। विदेश में चिकित्सा की पढ़ाई सस्ती भले हो, मगर करिअर के मामले में उतनी उम्दा नहीं है। भले ही वहां गुणवत्ता और मात्रात्मक सुविधाजनक व्यवस्था क्यों न हो।

दरअसल, इसके पीछे एक कारण यह भी है कि भारत एक उष्ण कटिबंधीय देश है और यहां पर पूरे वर्ष मौसम अलग-अलग रूप लिए रहता है और यहां व्याप्त बीमारियां भी भांति-भांति की होती हैं। ऐसे में यहां अध्ययनरत मेडिकल छात्र पारिस्थितिकी और पर्यावरण के साथ बीमारी और चिकित्सा संयोजित कर लेते हैं, जबकि दूसरे देशों में यही अंतर रहता है। हो सकता है कि पाठ्यक्रम के भी कुछ आधारभूत अंतर होते हों। फिलहाल भारत में मेडिकल कालेजों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में कम ही कही जाएंगी। जाहिर है, चिकित्सकों की खेप लगातार तैयार करने से ही लोगों की चिकित्सा और सरकार की आयुष्मान भारत जैसी योजना को लक्ष्य तक पहुंचाया जा सकेगा। ऐसे में सरकारी के साथ निजी मेडिकल कालेजों में भी शुल्क का अनुपात कम रखना ही देश के हित में रहेगा।