डॉ. मयंक तोमर
प्रजातंत्र में हमारी बौद्धिक प्रतिभा का जनप्रतिनिधियों को चुनने में किया प्रयोग और निवेश ही अंत में हमारा भविष्य तय करता है। इतिहास में जब कभी भी कोई प्रगतिशील राष्ट्र अप्रगतिशील राजनीतिक आस्था के झुंड से उपजाये गये सामाजिक विभाजन, घृणा को सामाजिक शांति और सहयोग के स्थान पर आश्रय देता है और तदोपरान्त इन नीतियों को प्रचार तंत्र के दुरुपयोग से जनता के बीच में फैलाया जाता है तब धीरे-धीरे इस विमर्श को विकास का आधार तत्व बना दिया जाता है। जनता में उत्तेजनाप्रद संदर्भों के नियोजित छल युक्त हवालों से इस विभाजन की नीति के लिए समर्थन जुटाना शुरू किया जाता है जिसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक सत्ता और एकाधिकार प्राप्त करना होता है।
लेकिन ऐसी सभी गतिविधियां अंत में गलतियों के रुप में समाज और अर्थव्यवस्था के विकास में बड़ी बाधा बन कर उभरती है। विकास की तेज चल रही प्रक्रिया पटरी से उतर जाती है और अंत में आर्थिक बदहाली और बृहद बेरोजगारी अंतिम परिणामों के रुप में सामने आते हैं। देश के सहज सरल बुद्धि सामान्य जनमानस को इस सारी विपदा का आभास बिलकुल अंत में लगता है। जब भी कभी विकास की प्रक्रिया में शामिल अन्य सहभागियों को विकास की सतत प्रक्रिया से अलग- थलग करने का प्रयत्न राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए किया जाता है तब राजनीतिक सामाजिक निरक्षरता में डूबा हुआ वह आत्मघाती विमर्श होता है जिसके सहयोग या दुर्योग से शांतिपूर्ण प्रगतिगामी राष्ट्रीय स्वास्थ्य का अंत सुनिश्चित होने लगता है।
वास्तव में यह धार्मिक निरक्षरता के गर्भ से निकला अधर्म का पौधा है, जो मानव धर्म को पूरी धृष्टता से अपने स्वहित के लिए नकारता दिखता है और जनहित के विकास पथ को असहज अप्राकृतिक विभेद के मार्ग पर मोड़ देता है क्योंकि विकास के स्थान पर सामाजिक विभाजन का प्रश्न राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र बिंदु बन जाता है। विकास का प्रश्न अपनी प्रथम दृष्टया प्रामाणिकता, महत्व और आवश्यकता को खोकर स्वतः ही पर्दे के पीछे छुप जाता है। बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि विकास विभाजन की पूर्णता के उपरांत उपजने वाला वैचारिक विश्वास या प्रतिफल बन जाता है। सामाजिक विमर्श में शीर्षस्थ हो चुकी यह सोच रचनात्मकता के प्रस्फुटन एवं बोध को धीरे-धीरे समाप्त कर देती है। उसका स्थान विध्वंस की मानसिकता गृहण कर लेती है जो उजागर या नियंत्रित दोनों स्वरूपों में विकास के विपरीत जानेवाली धारा है।
लेकिन पैनी आंखों से देखने पर यह सहज दृष्टव्य हो जाता है कि विकास और विभाजन दो अलग सिरे हैं, इनसे एक से दूसरे को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। विभाजन और विभेद में आर्थिक विकास ढूंढना मतिभ्रम से उपजी हुई एक नादानी है। तथ्यों और परिणामों के प्रति कुंठित भृमित आत्ममुग्धता है। हमें अंग्रेज विचारक जे.एस. मिल का यह कथन हमेशा याद रखना चाहिए कि ‘वह जो किसी मामले में अपना पक्ष जानता है वह उस मामले में बहुत थोड़ा जानता है’। विकास की अवधारणा में विभाजनकारी दलीलों को स्वीकारना और उनमें अपना उत्थान और फायदा खोजना एक नादानी के सिवा कुछ नहीं है। विकास का सामान्य अर्थ यह होता है कि देश और देश की जनता के साथ हम सब आज जहां खड़े हैं कल उसके आगे जायेंगे।
यह एक सकारात्मक मनोवृत्ति है, एक प्रकिया है जिसमें सभी को बिना भेदभाव के बौद्धिक और व्यापारिक साहस दिखाने के लिए राष्ट्रीय हवा के प्राणों में तैरता मंच उपलब्ध होता है। इसमें एकता ओर सहयोग की चारों दिशाओं से आ रही जीवंत प्रस्तुति होती है जहां विभेद एवं सीमांकन सहज ही अदृश्य हो जाते हैं। विकास के उत्साह से परिपूर्ण यह दृश्य सांस्कृतिक, भाषायी और धार्मिक विभाजन को विकास की लहरों में समाहित कर राष्ट्रीय एकता का एकाकार कर देता है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि सभी आर्थिक गतिविधियां एक दूसरे पर निर्भर होती हैं जैसे भवन निर्माण उद्योग में आई मंदी से मजदूर प्रभावित होंगे, बैंक प्रभावित होंगे, सीमेंट उद्योग प्रभावित होंगे, माल ढुलाई में लगे लोग प्रभावित होंगे, खरीददार प्रभावित होंगे, दलाल प्रभावित होंगे और जमीनों के खरीदार विक्रेता परेशान होंगे।
इस कड़ी के हवाले से कहना सिर्फ यही है कि बाजार और उससे जुड़े किसी भी उद्योग और व्यापार में अवरोध उसकी सुस्ती, उससे सूक्ष्म ओर वृहद रूप से जुड़े पूरे आर्थिक माहौल एवं बाजार पर असर डालते हैं। इसे सीमित और व्यक्तिगत नहीं किया जा सकता है। आर्थिक क्रियाए एक बड़ी श्रृंखला होती हैं व्यक्तिगत नहीं। व्यक्ति तो अलग अलग स्तरों पर प्रक्रियाओं में महज उसके भागीदार होते है। आज सरकार को छोटे बड़े उद्योग जगत और आपूर्ति श्रृंखलाओं में उत्पन्न निराशा और घाटे के भय को दूर करने की जरूरत है। समूचे माहौल में उपस्थित अशांति और अनिश्चितता का भय राष्ट्रीय आर्थिक प्रगति का एक अहम अवरोधी कारण है। राष्ट्रीय वातावरण में उपलब्ध अनुपयोगी विमर्श न सिर्फ सामाजिक मनोविकारों को जन्म देंगे अपितु अगर इनका निदान समय रहते नहीं होता है तो यह स्थिति आर्थिक विकास जगत में अक्रियाशीलता और भय के वातावरण को पुष्ट करेगी।
हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय जगत में प्रकट हो रही हमारी आर्थिक-सामाजिक शक्ति ही अन्य राष्ट्रों द्वारा हमारी शक्ति को तत्क्षण आंकने का प्रथम बुनियादी मानक होती है और उसमें आई गिरावट हमारी शक्ति में हो रहे क्षय की परिचायक होती है, जो हमारे अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर भी सामयिक असर डाले बिना नहीं रहती है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का निर्धारण राष्ट्रों द्वारा परिस्थितियों के गहन अवलोकन के बाद अपने-अपने राष्ट्रीय हित में ही होता है। ‘प्रजातंत्र एक बगीचा है जिसकी हम सब को देखभाल करनी है’, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा का यह हालिया कथन हमारे लिए भी सामयिक महत्व का है और यह कहना सार्थक होगा कि तीव्र गति से हो रही आर्थिक प्रगति में आयी गिरावट और रुकावट के मूलभूत कारणों की छानबीन का समय आ गया है अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।
(लेखक एमिटी यूनिवर्सिटी, नोएडा में प्राध्यापक हैं। )
