मधुरेंद्र सिन्हा

भारत ने वह कर दिखाया जो दुनिया के किसी भी देश के लिए एक सपना है। 100 करोड़ लोगों को कोरोना का टीका लगाकर हमने एक कीर्तिमान बनाया है। यह संख्या यूरोप-अमेरिका और जापान की कुल आबादी से भी ज्यादा है। इसे आप भारत की जनता की प्रतिबद्धता कहें या चाहत, बात साफ है कि सब ने मिलकर यह बीड़ा उठाया। और फिर दुनिया ने देखा कि भारत ने एक कमाल कर दिखाया।

दूसरी ओर विघ्नसंतोषी इस बात की चर्चा तक कर रहे थे कि भारत में यह संभव नहीं है। कई भारतीय विद्वान भी इसी तरह की बातें कर रहे थे लेकिन देश की करोड़ों जनता ने सभी को करारा जवाब दिया। जनवरी में जो अभियान शुरू हुआ वह अक्टूबर के मध्य में आते-आते इस जादुई आंकड़े तक जा पहुंचा है और यह सारी आबादी तक अगले साल तक पहुंच जाएगा।

स्वास्थ्यकर्मियों, आशा, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने किया कमाल

लेकिन जिन लोगों ने इस महाअभियान में जी-जान से चुपचाप शिरकत की बिना किसी पब्लिसिटी की चाहत के इसे इस अंजाम तक पहुंचाया, उनमें लाखों स्वास्थ्यकर्मी, स्कूल शिक्षक और भारत के हजारों गांवों में रहने वाली आशा, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताएं भी हैं जिन्होंने कोरोना महामारी के दौरान भी अपना स्वास्थ्य कार्यक्रम जारी रखा। हजारों की मौत इस घातक बीमारी से हुई लेकिन उन लोगों ने हिम्मत नहीं हारी। यह सफलता उनके नाम है।

यहां आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के बारे में चर्चा किए बगैर बात पूरी नहीं होगी। ये देश के कोने-कोने में स्वास्थ्य, पोषण और मातृत्व के कार्यों में अपना काफी समय लगाती हैं। इनकी कुल तादाद 8 लाख से जरा ही ज्यादा है और ये तीन-चार हजार रुपए औसतन प्रति माह के मानदेय पर काम करती हैं।

गांव-गांव जाना और वहां लोगों में संदेश फैलाना और फिर उन्हें टीका केंद्रों तक लाने का बीड़ा उन्होंने उठाया। उनके महती प्रयासों से इस अभियान का गांव-गांव में प्रसार संभव हुआ। अगर इन लोगों ने प्रतिबद्धता नहीं दिखाई होती। तो सरकारी तंत्र असहाय रह जाता। सबसे बड़ी बात है कि इन लोगों ने उस मिथ्या प्रचार को खत्म करने में बड़ी भूमिका निभाई जिसमें कोरोना के टीके को लेकर तमाम तरह की निगेटिव बातें कही जा रही थीं। लेकिन इन लाखों आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने समझदारी और प्रेम भाव से लोगों को समझाया-बुझाया, आश्वस्त किया।

इन कर्मवीरों ने कोई कसर नहीं छोड़ी और अपनी जान पर खेल गईं। यह कोई आसान काम नहीं था क्योंकि देश के कई राजनीतिक दल और कई धार्मिक गुट भी अपने क्षुद्र स्वार्थ में आकर इन टीकों के खिलाफ जहर उगल रहे थे। विदेशी दवा कंपनियां भी इसी अभियान में लगी हुई थीं कि किसी तरह भारत बने में टीकों को लोग रिजेक्ट कर दें ताकि उनके महंगे टीके उनकी शर्तों पर बिकें।

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दुनिया के कई देशों को टीका बनाने वाली विदेशी कंपनियों ने घुटने टिका दिए। कई निगेटिव रिपोर्ट दुनिया के नामी-गिरामी अखबारों में छपे ताकि भारत के टीका उत्पादन और उसे लगाने के कार्यक्रम को जबर्दस्त धक्का लगे और विदेशों में बने पांच गुने से भी ज्यादा महंगे टीके बेचे जा सकें। उनकी यह मंशा पूरी न हो सकी क्योंकि हमारे करोड़ों स्वास्थ्यकर्मियों और समझदार जनता ने उनके फरेब का जाल तोड़ दिया और भारत ने आज एक अभूतपूर्व उपलब्धि पा ली।

भारत टीके बनाने में अव्वल रहा

कोविड टास्क फोर्स के एक महत्वपूर्ण सदस्य डॉक्टर एनके अरोड़ा ने कहा कि पोलियो के विरुद्ध सफल लड़ाई ने हमें इस अभियान को हाथ में लेने और उसे पूरा करने का मंत्र दिया था। उन्होंने इस युद्ध के योद्धाओं को बधाई दी और कहा कि उनके प्रयासों से ही यह संभव हुआ क्योंकि इस बार यात्रा न केवल कठिन थी बल्कि इसमें जान का खतरा भी था। सच तो है कि लाखों लोगों की जान भी चली गई। लेकिन अपनी हिम्मत से उन सभी ने इसे सफल बनाया।

डॉक्टर अरोड़ा ने बताया कि भारत बच्चों के लिए टीके बनाने में मामले में दुनिया में अव्वल था लेकिन इस तरह के टीके बनाने के बारे में उस पर बहुत संदेह था लेकिन उसने पिछले दो दशकों में उसने बड़ी छलांग लगाई और इसका टीका भी बना दिया। दरअसल इन वर्षों में भारत में वैज्ञानिक रिसर्च के लिए बहुत बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर दिया।

पिछले साल मार्च में केंद्र सरकार ने बहुत बड़ी राशि टीके के विकास के लिए जारी की थी। इस बड़ी राशि से ने केवल रिसर्च और निर्माण में मदद मिली बल्कि इंटरनेशनल पार्टनरों और लोकल मैन्युफैक्टरर्स तथा स्थानीय लैब से करार करने में आसानी हुई। इसका ही नतीजा था कि भारत ने महामारी शुरू होने के सिर्फ दस महीनों के कम समय में देसी टीका तैयार कर लिया।

एक एक्सपर्ट पैनल भी बनाया गया जिसने टीके के दुष्प्रभाव की निगरानी की और सही समय पर सही सुझाव दिए। इस पैनल में तमाम तरह के डॉक्टर, शोधकर्ता, वैज्ञानिक थे जिन्होंने समय-समय पर अपने अनमोल सुझाव दिये। इनके सुझावों से ही सौ करोड़ की आबादी में नगण्य संख्या में दुष्प्रभाव देखने को मिले। टीके लेने वाले हर व्यक्ति को टीका केंद्र में रोके रखने के पीछे मकसद यही था कि किसी भी तरह के दुष्प्भाव का पता तुरंत लगाया जा सके।

इस अभियान की एक और बड़ी बात यह थी इसमें पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप काम आया। दोनों पक्षों ने मिलकर टीकाकरण के इस महती कार्य को सफल बनाने में मदद की। प्राइवेट कंपनियों ने न केवल टीके का विकास किया बल्कि उसे लगाने बीमारी के इलाज में भी हाथ बंटाया। दूसरी ओर डब्लूएचओ और यूनिसेफ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी बड़ा योगदान किया। डब्लूएचओ ने टेक्निकल और लॉजिस्टिक्स सपोर्ट दिया जिस वजह से टीके को कोल्ड चेन सप्लाई सिस्टम के तहत देश के सभी हिस्सों में ले जाना संभव हुआ।

अभी जंग जारी है

इस देश में 94 करोड़ वयस्क हैं और उनके लिए कुल 190 करोड़ टीके की डोज चाहिए ताकि पूरे देश को इम्युनाइज किया जा सके। जहां तक इतनी तादाद में टीकों की बात है तो वर्तमान उत्पादन रफ्तार से हम यह लक्ष्य अगले साल के मध्य तक पा लेंगे। लेकिन वो लोग जो टीके न लेने पर अड़े हुए हैं उन तक पहंचना कठिन होगा। इससे वह सुरक्षा चक्र नहीं बन पाएगा जो इस दुष्कर बीमारी में जरूरी है।

फिर हमारी उम्मीदें उन लाखों स्कूल शिक्षकों, स्वास्थ्यकर्मियों, आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं पर टिकी हुई हैं। उन्होंने ही यहां तक का रास्ता तय करने में निस्वार्थ भाव से जान पर खेलकर हमारी मदद की है। उनमें से कई तो इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन आज वह वक्त है कि हमें और देशवासियों को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए।