डॉ. मणिन्द्र मोहन, डॉ. वीर सिंह

जल संकट से त्राहि-त्राहि के दिन आने वाले हैं। ऐसे संकेत आने भी लगे हैं और विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि विश्व के अनेक बड़े-बड़े शहर निकट भविष्य में जल संकट से जूझ रहे होंगे। जल संकट एकल रूप में नहीं आता, अपने साथ अनेक सामाजिक तनाव पैदा करता आता है। कुछ मनीषी तो भविष्यवाणी भी करने लगे हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी पर होगा। वह तो समय ही बताएगा, लेकिन गर्मियों में गली-मोहल्लों में लघु ‘गृह युद्धों’ के दृश्य अवश्य देखने को मिलने वाले हैं। अब ऋतु चक्र भी जल-चक्र के साथ मिल-जुल कर चलते हैं। एक ऋतु जल की उत्तरोत्तर कमी का विकट संकट लेकर आती है, और अगली प्रचंड बाढ़ों और भूस्खलनों के साथ जल की मारक शक्ति का घनघोर संकट लेकर। जल संकट की यह दोहरी मार प्रकृति का नहीं, मानव का खेल है।

पृथ्वी पर जीवन के लिए जल की आवश्यकता जीवन पर्यन्त है। जल की कमी के कारण प्रजातियां और सभ्यताएं तक प्रभावित होकर नष्ट हो जाती हैं। सभ्यता के संकट की जड़ें जल संकट में ही निहित हैं। सार्वभौमिक सत्य है कि जल ही जीवन का सार है, जिसके बिना जीवन की परिकल्पना करना व्यर्थ है। ऐसे में जल की महत्ता को देखते हुए इसके संरक्षण, सुरक्षा, प्रबंधन व गुणवत्ता सुनिश्चित करने का दायित्त्व हमको लेना होगा। जल संरक्षण, जल प्रबंधन और जल गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए ठोस राष्ट्रीय नीति और रणनीति का अभाव जल संकट का प्रमुख कारण है। पृथ्वी पर जल का संरक्षण, सुरक्षा, प्रबंधन व बेहतर गुणवत्ता एक संवेदनशील मुद्दा है, जिस पर गंभीर मंथन व क्रियान्वयन अपेक्षित है। पृथ्वी पर जीवन यापन के लिए पर्याप्त पानी किसी न किसी रूप में मौजूद है।

लेकिन दुर्भाग्य से मुख्य समस्या पानी की घटती गुणवत्ता और बढ़ती मांग है। विश्लेषण बताते हैं कि सतही पानी का 80 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित है, जिसका मुख्य कारण मानवीय हस्तक्षेपों को माना गया है। प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता लगातार कम होती जा रही है, जिससे गांवों और शहरों में जल को लेकर सामाजिक तनाव तेज़ी से बढ़ रहे हैं।

बात यहाँ तक आ पहुँचने लगी है कि पर्याप्त जल उपलब्ध न हो पाने के कारण अब जनमानस को कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है, जबकि यह उनके मौलिक अधिकारों में सम्मिलित है। प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि साल 2001 में देश में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1,816 घनमीटर थी, जो एक दशक यानी 2011 बाद घटकर 1,545 घनमीटर और 2021 में 1,486 घनमीटर तक सिमट चुकी है। और आगामी साल 2031 तक लगभग घटकर 1,367 घनमीटर तक होने की संभावना व्यक्त की जा रही है।

अध्ययन यह भी बताते हैं कि जनसंख्या बढ़ने से साल 2041 और 2051 तक जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता घटकर क्रमशः 1,282 और 1,228 घनमीटर तक रह जायेगी। देश में प्रति व्यक्ति घटती जल की उपलब्धता और तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या निकट भविष्य में नए संकट का कारण बन सकती है, जिस पर गहन चिंतन, मनन के साथ प्राथमिकता स्तर से कार्य किया जाना अत्यंत आवश्यक है।

सी.डब्लू. सी. की रिपोर्ट बताती है कि भू-जल के अत्यधिक दोहन से देश में हर वर्ष पानी की मात्रा 0.4 मीटर घट रही है। देखा जाये तो भू-गर्भीय जल का अत्याधिक दोहन, कुप्रबंधन, अनियंत्रित विकास, शहरीकरण और मानवीय कार्यकलाप के कारण सतही जलस्रोतों का तेजी से संकुचित, अतिक्रमित व संक्रमित होकर सूखना जल मांग में वृद्धि का कारण बन रहे हैं।

नीति आयोग की रिपोर्ट बताती है कि भारत में साफ पानी न मिलने के कारण साल भर में लगभग दो लाख लोग अपनी जान गंवा देते हैं तथा साठ करोड़ भारतीय किसी न किसी प्रकार की जल की समस्याओं से जूझ रहें हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन नें जीवन यापन के लिए न्यूनतम 5 से 7 लीटर जल को आवश्यक बताया है, साथ ही 86 प्रतिशत से अधिक मानव रोगों का कारण दूषित जल को ठहराया है, जिसमें से हेपेटाइटिस, टाइफाइड, डायरिया व पेचिश इत्यादि मुख्य हैं। एक तरफ जहां नीति आयोग 2030 तक देश में पानी की मांग को दोगुनी होने की सम्भावना पर चिंता व्यक्त कर चुका है, वहीं अगर आंकड़ों की माने तो जल गुणवत्ता सूचकांक मामले में 122 देशों की सूची में भारत का स्थान 120वां है जो देश में जल गुणवत्ता की निम्न स्थिति को परिलक्षित करता है।

जल सुरक्षा का सीधा सम्बन्ध हमारी जैव विविधता और खाद्यान्न सुरक्षा से भी जुड़ा मुद्दा है। संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के एक विश्लेषण के अनुसार सूखे के विनाशकारी प्रभाव और जल की असुरक्षा ने केन्या में लगभग 2.4 मिलियन लोगों को प्रतिदिन भोजन प्राप्त करने में असमर्थ बना दिया है। फलस्वरूप, 3,68,000 लोगों को भूख के आपातकालीन स्तर का सामना करना पड़ा है। साथ ही केन्याई समाचार पत्र ‘द स्टार’ की रिपोर्ट ने सूखे के कारण 4000 से ज्यादा जिराफों की जान को खतरा बताया है, जो केन्या में जल की असुरक्षा और सूखे के विनाशकारी दंश को उजागर करती है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि एक किग्रा धान के उत्पादन में लगभग ढाई से तीन हजार लीटर जल की आवश्यकता होती है। स्पष्ट है, जल का संकट कृषि उत्पादकता को सीधे तौर पर प्रभावित करेगा जो कुपोषण और भुखमरी की दर में अभिवृद्धि का कारण बनेगा।

भारत सरकार के जल जीवन मिशन के आंकड़ों के अनुसार जल के गुणवत्ता की दृष्टि से तीन पहाड़ी राज्यों का स्थान शीर्ष पर है, जिनमें हिमाचल प्रदेश प्रथम, मणिपुर दूसरे तथा उत्तराखंड तीसरे स्थान पर है। पर्वतीय राज्यों के जलस्रोतों और उनके जल की गुणवत्ता तुलनात्मक रूप से अन्य राज्यों से काफी बेहतर स्थिति में है, जिसका मुख्य कारण कहीं न कहीं मानवीय हस्तक्षेपों का कम होना है। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक आलेख में उत्तराखंड प्रदेश के 1200 जलस्रोतों के सूखने पर चिंता व्यक्त की गयी है, जो निसंदेह भविष्य में पर्वतीय क्षेत्रों में जल की मांग में बढ़ोत्तरी का कारण बन सकते हैं।
देखा जाए तो पृथ्वी पर जल की असुरक्षा और कुप्रबंधन भविष्य के लिए एक नया संकट बनता जा रहा है, जिससे बचने लिए सार्थक और अभूतपूर्व प्रयासों की आवश्यकता है।

इसके लिए जल के महत्व को समझना होगा और व्यर्थ में जल की बर्बादी को जनसहयोग से रोकना होगा और संकटग्रस्त जल स्रोतों को सूखने और जीवित व गतिमान जलस्रोतों को प्रदूषित तथा संक्रमित होने से बचाना होगा। जलस्रोत जीवित और हरे-भरे रहेंगे तो पृथ्वी पर जल की पर्याप्त उपलब्धता होगी और भू-गर्भीय जल का रीचार्ज एवं संतुलन ठीक प्रकार से बना रहेगा, जिससे पृथ्वी पर जल संकट की चिंता और भविष्य में जल की कमी से उत्पन्न होने वाली खतरों से बचा जा सकता है।