जगह कोई भी हो सकती है, फर्ज कीजिए-इंदिरा गांधी स्टेडियम, राजीव गांधी स्टेडियम। मंच पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी समेत कई नामचीन कांग्रेसी बैठे हैं। दर्शक दीर्घा में कांग्रेस सेवा दल के सदस्य बड़ी तल्लीनता से एक व्यक्ति का संबोधन सुन रहे हैं। कांग्रेस सेवा दल को संबोधित करने वाले ये कोई और नहीं बल्कि बीजेपी के पितृ पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी हैं। ऊपर का सारा वृतांत एक हाइपोथेटिकल (परिकल्पित) सोच की उपज है। ऐसा हुआ नहीं है, लेकिन मेरा मानना है कि जब लोकतंत्र में संवाद की परंपरा के उद्दाम मापदंडों का पालन करते हुए प्रणब मुखर्जी कांग्रेस की प्रखर आलोचक रही आरएसएस के कैडर को संबोधित कर सकते हैं, तो आडवाणी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से बात क्यों नहीं कर सकते हैं? हां आडवाणी को ये न्योता तो खुद राहुल गांधी को देने जाना होगा। बता दें कि 1 जनवरी 1924 को गठित कांग्रेस सेवा दल पार्टी के लिए जमीनी स्तर पर काम करने वाली प्रमुख संस्था रही है। जैसे आरएसएस बीजेपी की सियासत के लिए कैडर तैयार करती है, उसकी विचारधारा को खाद-पानी देती है। यहीं काम कांग्रेस सेवा दल कांग्रेस के लिए करती है। जंग-ए-आजादी के दौरान फौजी अनुशासन, कर्तव्यपरायणता और समर्पण इस संस्था की पहचान रही है। हालांकि अभी इस दल की सक्रियता कम है।
बात थोड़ी पुरानी है। तब केन्द्र में यूपीए वन की सरकार थी। एल के आडवाणी नेता प्रतिपक्ष थे। जनवरी 2008 की सर्दियों में दिल्ली एयरपोर्ट के वीआईपी लाउंज में तत्कालीन कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी आडवाणी से टकरा जाते हैं। दोनों नेताओं के बीच बातचीत होती है। यूं तो ये मुलाकात आकस्मिक और निजी थी, लेकिन यहां हुई गुफ्तगूं, सियासत और संवाद की उस परंपरा पर केन्द्रित थी, जो ये मानकर चलता है कि पक्ष-विपक्ष के बीच संवाद, उनका वाद-प्रतिवाद, जीवंत लोकतंत्र की निशानी है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक तब राहुल गांधी ने आडवाणी से कहा था कि कांग्रेस और बीजेपी को एक-दूसरे के साथ राजनैतिक विरोधियों की तरह बर्ताव करना चाहिए न कि दुश्मनों की तरह पेश आना चाहिए। हालांकि राहुल ने कहा था कि बीजेपी हमारी राजनीतिक विरोधी है और हमारे और उनके बीच बुनियादी स्तर पर ही मतभेद हैं।

कहने का अभिप्राय यह है कि आडवाणी के साथ संवाद की गुंजाइश राहुल पहले भी जता चुके हैं। करते भी रहे हैं। जुलाई 2017 में जब हंगामे की वजह से लोकसभा नहीं चल पा रही थी तब भी राहुल सदन में आडवाणी से मिले थे, दोनों नेताओं के बीच बातचीत हुई थी। अगर इस कड़ी का दूसरा राउंड भी हो जाए- बिल्कुल डंके की चोट पर- जैसा कि आरएसएस पूर्व राष्ट्रपति को बुलाकर कर रहा है, तो ये डिस्कोर्स राजनीति की तपिश झेल रहे भारत में ठंड़े फुहार की सुखद बारिश जैसा होगा। तो क्या संघ के बाद राहुल को भी पार्टी और विचारधारा से आगे निकलकर संवाद स्थापित करने के लिए विविध पृष्ठभूमि के लोगों को बुलाना चाहिए? तो क्या कांग्रेस अध्यक्ष को भी सेवा दल को संबोधित करने के लिए आडवाणी को न्योता देना चाहिए? इस हाइपोथेटिकल सवाल पर संवाद परंपरा के पैरोकारों और राजनीतिक टीकाकारों की टिप्पणी इस चर्चा को और भी विस्तार देगी।
हालांकि इमेज बिल्डिंग की कवायद आडवाणी के लिए किसी दुस्वपन सा रहा है। यहां पर ना चाहते हुए भी जिन्ना इस लेख में एंट्री कर लेते हैं। 2004 लोकसभा चुनाव में बीजेपी की हार के बाद आडवाणी की पाकिस्तान यात्रा का जिक्र हम यहां नहीं करना चाहेंगे। लेकिन इससे क्या, आडवाणी सियासत के वो योद्धा रहे हैं, जिन्होंने दल से बाहर जितनी लड़ाइयां लड़ी हैं, लगभग उतनी ही पार्टी के भीतर भी। सो एक संवाद ऐसा भी होना चाहिए, जहां वक्ता बीजेपी हो और श्रोता कांग्रेस। प्रणब बाबू दूसरी ओर की जिम्मेदारी उठा रहे हैं। दरअसल संघ कार्यकर्ताओं के तृतीय वर्ष के समापन पर होने वाले कार्यक्रम को संबोधित कर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की कांग्रेसियत रत्ती भर भी कम नहीं हो जाएगी, ना ही उनकी सेकुलर साख के उजले पृष्ठ पर काजल की कोई लकीर खींच जाएगी। ये सारा मामला राजनीति में संवाद की जरूरत, उसे समावेशी और कल्याणकारी बनाने की पहल से जुड़ा हुआ है। और हां, अगर आपको राजनीति करने की आदत ही है तो आप इस पूरे घटनाक्रम को दो असंतुष्टों की पीड़ा भी कह सकते हैं।