‘फैसले वापस लेना मोदी के खून में नहीं’ जैसी जुमलेबाजियों और बिना तैयारी ‘नोटबंदी’ जैसी उछलकूद में उलझी मजबूत सरकार कमजोर जनता से राष्ट्रभक्ति का प्रमाण मांग रही है। कठोर फैसले को बिना तैयारी लागू कर और उससे उपजी नाकामियों को ढकने के लिए सरहद और राष्ट्रवाद की ओट में जाकर बाकियों पर राष्ट्रद्रोही का ठप्पा लगाने की कोशिश सरकार की साख पर सवाल उठाती है। यह वक्त साक्षी है कि एक सही फैसले को गलत तरीके से लागू करवाने की कोशिश पूरे देश को बुत की तरह कैसे कतार में खड़ा कर देती है? कैसे एक कड़क फैसला किसी मजबूत सरकार को इस कदर कमजोर बना देता है कि उसे कातर भावनात्मक अपील करनी पड़ जाती है? अब यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि सरकार के इस फैसले का असर उसकी सेहत पर कैसा पड़ा। फिलहाल भारतीय अर्थव्यवस्था से 86 फीसद नकद नारायण के बाहर होने के बाद कतार में खड़ी जनता की दुश्वारियों और नकदी रहित देश की पड़ताल करता इस बार का बेबाक बोल।
इराकी हमले के बाद कुवैत में फंसे भारतीयों पर बनी फिल्म ‘एयरलिफ्ट’ में जब जॉर्डन की सीमा पर इंतजार कर रहे लोगों को प्रवेश द्वार पर भारतीय झंडा नहीं दिखता तो वे बेचैन हो जाते हैं। वह तीन रंग और उसके बीच बना एक चक्र उनके लिए जीवन और मरण का निशान था, सद्दाम के हमले से बचने की अंतिम उम्मीद। आम हिंदी फिल्मों के सुखद अंत की तरह जॉर्डन के प्रवेश द्वार पर भारत का झंडा लहराया जाता है और भारतीय शरणार्थियों को जीवनदान मिलता है। अभी तक भोग-विलास में डूबे कारोबारी अभिनेता को लगता है कि उसने जीवन में पहली बार तिरंगे को इस नजर से देखा। शायद पाश की कुछ इन पंक्तियों की तरह कि ‘भारत, मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द, जहां कहीं भी इस्तेमाल हो, बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।’ ऐसे समय में आपको राष्ट्र और उससे निकले वाद का महत्त्व समझ में आता है।
अब जरा फिल्म से इतर नोटबंदी के बाद की असल जिंदगी की बात करें। कनाट प्लेस की एक बेकरी में सन्नाटा देख कर अचानक लगा कि कितना कीमती वक्त बच गया। विक्रेता से कहा कि भाई, ऐसा रोज क्यों नहीं होता, आज तो मुझे बहुत आसानी हुई। मेरे इस बेफिक्र बयान से आहत होकर उसने कहा कि मैं सोच रहा हूं कि जल्दी से भीड़ जुटे, लोगों की लाइन लगे, ताकि हमारी नौकरी बचे। उस व्यक्ति के थके-हारे शब्दों ने मेरे सुविधाभोगी शब्दों को शर्मसार किया और मैं सरकार और उनसे जुड़े सभी साधु-संतों के उपदेशों को याद करने लगा कि वे क्यों नोटबंदी के विरोध को राष्टÑद्रोह से जोड़ रहे हैं। एक जिम्मेदार नागरिक की तरह प्रधानमंत्री के ऐप सर्वे से मैंने भी जुड़ने की कोशिश की, लेकिन उनके सवालों का लब्बोलुआब भी यही था कि नोटबंदी के खिलाफ जाने का मतलब कालेधन के पक्ष में जाना… और जाहिर-सी बात है कि यह देश के खिलाफ भी जाना होता।
ढाई दशक के अपने पत्रकारीय जीवन में मैंने पहली बार इस तरह से बीच बहस में राष्टÑ को देखा है। शुरुआत तो हो गई थी संसद तक पहुंचीं एक माननीया साध्वी के ‘हराम…’ बयान के साथ ही। मगर इसके बाद मानो सत्ता के खिलाफ बोलने वालों को देशद्रोही ठहराने और उन्हें पाकिस्तान चले जाने का हुक्म सुनाना फैशन-सा हो गया। इसका उग्र रूप देखा गया जेएनयू के कन्हैया कुमार वाले मामले में, जब उन्हें राष्टÑदोह के आरोप में जेल भेज दिया गया। फिर चाहे जल-जंगल-जमीन की लड़ाई से जुड़े रहे मैगसायसाय पुरस्कार से सम्मानित संदीप पांडेय हों या वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन या शाहरुख खान या प्रियंका चोपड़ा, सरकार के खिलाफ जुबान खोलने वाले सभी एक-एक कर देशद्रोही घोषित होते गए।
देशभक्ति और देशद्रोह के बारे में कुछ भी सोचते हुए सेना की बात आएगी ही। नोटबंदी के फैसले को सरकार का पक्ष सीमा से जोड़ रहा है, सैनिकों की शहादत से जोड़ रहा है। मतलब साफ है कि अगर आप नोटबंदी के खिलाफ बोल रहे हैं तो सैनिकों के खिलाफ बोल रहे हैं। इन दिनों हर भावना को सरहद से जोड़ कर देश की सेना को एक खास विचारधारा से जोड़ा जा रहा है जो सेना की साख के लिए नुकसानदेह है। क्या यह सबसे मामूली बात किसी को बताने की जरूरत है कि सेना किसी भी राष्टÑ की साख होती है… वहां के नागरिकों की उम्मीद होती है। आजादी से लेकर आज तक यही एक स्थापित सच रहा है कि सेना सबकी है। मगर कैसे और किन हालात में यह हुआ कि कोई खास समूह और उसके नजदीकी ही खुद को सेना से जुड़ी तमाम भावनाओं के ठेकेदार मानने लगे और उनके बरक्स किसी भी पक्ष को सेना के खिलाफ बताया गया। एक ही देश के प्रति बराबर की निष्ठा रखने वालों को कठघरे में खड़ा कर देने से किसका लाभ हुआ, यह शायद कभी सामने नहीं आए!
इसके बावजूद यह जोर देकर कहे जाने का वक्त है कि अपने खास फैसलों को मनवाने के लिए बार-बार तिरंगा, भारत-माता या सैनिकों का इस्तेमाल जितनी जल्दी करना छोड़ दिया जाए, उतना ही अच्छा होगा। सौ साल से भी ज्यादा समय तक देश की आजादी की लड़ाई लड़ी गई। स्वतंत्रता के आंदोलन को लेकर भी भारी मतभेद रहे हैं, लेकिन किसी ने दूसरे के माथे पर इस तरह से राष्टÑद्रोह की पट्टी चस्पां नहीं की। वे आपसी मतभेद के बाद भी संगठित रूप से लड़ाई लड़ते रहे। यह इस देश की अनेकता में बसी उस एकता की ताकत थी जो दूसरों को भी अपनों में जोड़ती रही। लेकिन आज सिरे से ‘दूसरे’ को खारिज किया जा रहा है।
हालत यह है कि नोटबंदी के फैसले के बाद उस फैसले में दो दर्जन से भी ज्यादा संशोधन कर देने वाली सरकार को अपनी जरा-सी भी आलोचना सुनना गवारा नहीं। कोई सवाल किए जाने पर एक केंद्रीय मंत्री किसी फिल्मी नायक की तरह कहते हैं – ‘फैसले वापस लेना मोदी के खून में नहीं’। एक्शन फिल्मों की यह मारधाड़ वाली भाषा एक जनप्रतिनिधि के मुंह से अच्छी नहीं लगती। लेकिन यहीं से उत्साह पाकर सरकार और बहुत तरह के कारोबार से जुड़े ‘संत’ इस फैसले पर सवाल उठा रहे लोगों को देशद्रोही की संज्ञा दे बैठते हैं। आलम यह है कि नोटबंदी के कारण आम आदमी के हिस्से आर्इं दुश्वारियों को सामने लाना भी देशद्रोह हो गया है। राजनीतिक मूल्यों का यह ह्रास अतुलनीय है। आखिर इतने बड़े फैसले का एक ही पक्ष तो नहीं हो सकता तो फिर दूसरे पक्ष को सुनने में हर्ज क्यों? अगर फैसला इतना ही ठोस था तो इसमें बार-बार कई बदलाव क्यों किए गए… वह भी कथित ‘देशद्रोहियों’ के हंगामे के बाद।
आखिर क्या वजह है कि तीसरे हफ्ते में प्रवेश करने के बाद सरकार कई तरह की परेशानियों की बात कबूल करने लगी है। प्रधानमंत्री ने आठ नवंबर को कहा था कि यह महज कुछ दिनों की परेशानी है। इसके बाद उन्होंने 50 दिन का समय मांगा। जो आठ नवंबर को ‘शुद्धीकरण’ अभियान था, वही 27 नवंबर को ‘मन की बात’ में नकदीरहित अर्थव्यवस्था के रूप में सामने रखा गया। केन्या की अर्थव्यवस्था का उदाहरण दिया गया। आठ नवंबर के आगाज में नकदी रहित अर्थव्यवस्था की बात नहीं थी। और उसके बाद आई पूरे काले को आधा सफेद करने की श्वेत-सुंदर योजना।
यह सच अपनी जगह आज भी कायम है कि यह फैसला डूबती हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सिर्फ नीतिगत फैसला नहीं था, बल्कि इसके पीछे राजनीति भी निहित थी। इसके पहले कालेधन पर किए गए चुनावी वादे को खुद इनके पक्ष से ही जुमला करार दे दिया गया था। विदेशों से कालाधन लाने में सरकार नाकाम रही, विदेशी खातों में जमा कालेधन के खातेधारकों के नाम आम करने को तैयार नहीं हुई। देश में जमा कालाधन पकड़ा न जा सका तो हर आदमी के पास पड़े पैसे को कालाधन मान लिया गया! इस तर्क को कोई काट कर दिखाए कि सरकार के इस फैसले के बाद देश में मौजूद नकद राशि एकमुश्त कालाधन साबित कर दी गई। देश भर में तमाम गृहिणियां भी अपनी बचत का हिसाब देने के लिए आठ से दस घंटे तक कतार में खड़ी रहीं। एक ऐसे देश में जिसकी अर्थव्यवस्था का लगभग 96 फीसद नकदी पर चलता हो वहां से ‘नकद नारायण’ को खत्म कर दिया गया। तरल मुद्रा की मोहताज हो वहां की सरकार जादू के तौर पर पलक झपकते ही उसका बैंकीकरण करना चाहे।
लोकतंत्र में आम आदमी ही असल में सरकार है। मौजूदा सरकार के पास जबर्दस्त बहुमत हासिल है। इतना बड़ा फैसला तमाम खामियों के बावजूद सबको स्वीकार है। क्यों? क्योंकि इसका सीधा वास्ता कालेधन से जोड़ दिया गया है। हर आम आदमी कालेधन के खिलाफ है। कालाधन खत्म हो, लेकिन क्या उसके लिए अयाचित कतारों में शहादत जरूरी थी?
नकदी की कमी या इससे जुड़े कारणों से मरते लोगों को शायद ही इतिहास में दर्ज किया जाए, लेकिन यह सच है कि एक क्रांतिकारी फैसले को अपनी मुश्किलों के बाद भी समर्थन देते हुए कतारों में सांसें थम गर्इं। क्या देशहित के इस वृहत्तर कार्य में गई ये जानें शहादत से कम हैं? आखिर असहमत लोगों को राष्टÑद्रोही घोषित करने के बाद आगे-पीछे होते हुए सरकार यहां तक कैसे पहुंची कि अब नया नियम यह सामने आने वाला है कि अगर कोई अपना काला धन घोषित कर देता है तो उस रकम में से पचास फीसद वह अपने पास ईमानदारी की कमाई की मुहर के साथ और बाकी पैसों का हिसाब सरकार के पास। मौजूदा सरकार में यही सबसे बड़ी समस्या है कि इसके अलंबरदार अपनी बात मनवाने के लिए तिरंगे को डंडे की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं। आम चुनावी लड़ाई को इसके नेताओं ने रामजादों और …जादों में बदल दिया था। लेकिन समय आ गया है कि यह प्रवृत्ति रोकी जाए। सरकार का आधा कार्यकाल पूरा हो चुका है। ऐसा न हो कि बेवजह राष्टÑदोह का कलंक चस्पा किए लोग कलंक धोने के लिए फरमान सुना दें।