संस्थागत धर्म को चुनौती दे अनुयायियों से कहा कि अपनी देह को लेकर संप्रभु बनो। दर्शनशास्त्र के अध्यापक ने जीवन को तुच्छ मानने वाले संतों के प्रवचन को पाखंड बताकर बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती के कोलाज से बने प्रेम को ही प्रार्थना बताकर एक नया दर्शन शुरू किया। किन वजहों से रजनीश को एक नए भगवान के रूप में स्थापित करने की कोशिश हुई और पुराने को खारिज करने के बाद नए रास्ते की खोज का सिरा फिर पुराने से जुड़ता दिखने लगा? 11 दिसंबर को ओशो रजनीश की जयंती के बहाने रहस्य और विवादों के घेरे में रहे गुरु की प्रासंगिकता पर इस बार का बेबाक बोल।
वे सत्य को परंपरा का हिस्सा नहीं मानते थे। दुनिया की भीड़ में खोए हर इंसान का अपना सत्य होता है और अपना अनुसंधान होता है। इसी अनुसंधान के तहत कई तरह के दर्शन स्थापित करने की कोशिश की गई, जिसमें दैहिक आजादी भी थी। एक संत दैहिक वर्जनाओं को त्यागने का उपदेश दे रहा था। वर्जनाओं के वस्त्रों से ढके इंसान को कह रहा था एक बार सामूहिकता में इन्हें उतार कर देखो और अपने अनुभवों का नया इतिहास लिखो।
दिल्ली और चंडीगढ़ को जोड़ने वाले राष्टÑीय राजमार्ग नंबर एक पर ‘ओशो धारा’ का एक छोटा-सा बोर्ड शायद आपकी नजर में न आए, अगर आप रफ्तार से अपना रास्ता तय कर रहे हैं। वैसे भी मुरथल को यहां के ढाबों की दाल-मक्खनी और पराठों के लिए ज्यादा जाना जाता है। लेकिन इस बार गाड़ी उधर ही मुड़ गई। थोड़ा-सा अंदर जाकर मुख्य द्वार से निकलते ही जैसे एक अलग दुनिया शुरू हो गई। आचार्य से भगवान और भगवान से ओशो हुए रजनीश का आश्रम कैसा होगा, उसकी एक छवि सबके मन में है, जो भी उन्हें जानते हैं। लेकिन यहां वह छवि छिन्न-भिन्न होती हुई दिखाई देती है। रविवार होने की वजह से थोड़ी गहमागहमी थी। लेकिन लोग अपने आसपास से बिल्कुल विरक्त दिखाई दिए और आश्रम में मौजूद लोगों में छोटे बच्चों, युवाओं और मध्यम उम्र के लोगों की भरमार थी। सभी एक आरामदायक मुद्रा में दिखे। कुछ विदेशी भी थे। कुछ लोग सोमवार से शुरू होने वाले कोर्स के लिए अपना सामान लेकर आते हुए भी दिखाई दिए।
आश्रम में जगह-जगह लगीं ओशो की तस्वीरें धुंधली पड़ रही हैं। ओशो के साथ अमेरिका के आरेगान में रोल्स रायस कारों के काफिले की तस्वीरें, विश्व में पहले जैविक हमले के आरोप, अध्यात्म के नाम पर एक रियासत खड़ी करने वाले गुरु के शिष्यों का आश्रम ऐसा सामान्य-सा होगा – यह सोचा नहीं था। खासतौर पर तब जबकि बातचीत में पता चला कि इस आश्रम में रह रहे ओशो के भाई शैलेंद्र और यहां के संचालक सिद्धार्थ मुर्शिद अभी भी विदेशों में प्रवचन के लिए जाते रहते हैं। आज की भागदौड़ की तेज जिंदगी में अध्यात्म और व्यावहारिकता में तालमेल बिठाने का बीड़ा जो ओशो धारा चला रहे रजनीश के अनुयायियों ने उठाया है, उसकी कामयाबी पर स्थितियां कुछ दमदार नहीं लगीं। लेकिन उनका हौसला गजब था। सिस्सीफस की तर्ज पर प्रयास करते रहने वाली जिजीविषा भी प्रचुर मात्रा में दिखाई पड़ी। एक व्यवहारकुशल मेजबान की तरह मीरा ने यह महसूस भी नहीं होने दिया कि यहां कोई अजनबी है।
राष्ट्रीय राजमार्ग से सटे इस आश्रम में जरा-सी दूरी तय करने के बाद रफ्तार का जैसे अंत-सा हो गया। माहौल में एक शांति बनी थी जिसे किसी अनुयायी का बच्चा कभी-कभार अपनी आवाज से चीर देता था। भगवा चोगे में अनुयायी आपको थोड़ी उत्सुक निगाह से देख कर हल्के अभिवादन के बाद आगे बढ़ जाते हैं। यह सब ओशो की उस छवि के विपरीत था जो बजरिए विकीपीडिया और गूगल के आपने अपने दिमाग में बिठाई है।
अपने जीवनकाल में रजनीश ने जो ‘कल्ट फालोइंग’ शुरू की, सोशल नेटवर्क से ऐसा लगता है जैसे उसका पूरी तरह खात्मा हो गया है। लेकिन यहां आने के बाद किसी को ऐसा कोई एहसास नहीं होता। यह जरूर है कि रजनीश ने जो विशालकाय संस्था खड़ी की थी यहां उसका एक कण मात्र ही है। लेकिन है। अगर किसी को ऐसा लगता था कि रजनीश का इतिहास में नाम उनके साथ ही समाप्त हो गया तो यहां उनका अस्तित्व बचाए रखने की कोशिश साफ दिखाई देती है। बेशक इसकी हस्ती के आकार पर सवाल उठाया सकता है।
अध्यात्म के मार्ग से लेकर मोक्ष तक पहुंचने का या फिर जीवनकाल में परमानंद की अनुभूति के लिए रजनीश ने जो मार्ग चुना था, उनके अनुयायी यहां उसी के समांतर एक मार्ग का निर्माण कर रहे हैं। बस राह में पहले जैसे गति-अवरोधक नहीं हैं। कहानी कहने का अंदाज भी नया है। रजनीश के समतुल्य होकर अपनी बात कहने की कुव्वत तो शायद ही किसी में हो। उनके जीवनकाल में उनके सान्निध्य में काम कर चुकीं मां प्रिया का कहना है, ‘एक अद्भुत तेजपुंज का सा अस्तित्व था ओशो का। आपके पास उनसे वशीभूत होने के सिवा कोई चारा नहीं था’। यों यह संयोग है कि रजनीश पर लगे अनगिनत आरोपों में एक यह भी है कि वे सबको अपने सम्मोहन में जकड़ लेते थे। आधुनिक युग में ‘हिप्नोटिज्म (वशीकरण)’ का आरोप तो कइयों पर लगा है, पर रजनीश जैसी गंभीरता से किसी पर भी नहीं।
पेशे से डॉक्टर लोकराज शर्मा ने अध्यात्म को कभी गंभीरता से नहीं लिया। आश्रम में उनका आगमन भी एक डॉक्टर की हैसियत से ही हुआ। लेकिन यहां आ जाने के बाद उनका कहना है कि उनके जीवन में एक नए युग की शुरुआत हो गई। ‘ऐसा लगा कि जैसे जीवन के झंझावात में फंसी मेरी नाव को सहज किनारा मिल गया हो’। यों आश्रम के संचालक सिद्धार्थ भी कॉरपोरेट जगत में अपनी भारी-भरकम नौकरी छोड़ कर अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर हुए हैं। उनका कहना है कि एक बार यहां रम जाने के बाद मुंबई जैसे महानगर को विदा कहने का जरा भी अफसोस महसूस नहीं हुआ।
कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम कह कर उससे मुक्त होने की बात की थी तो ओशो रजनीश जीवन की उत्सवधर्मिता को ही धर्म मानते थे। और अस्सी के दशक में बहुत से लोगों पर ओशो का यह धर्म अफीम की तरह असर करने लगा था। लोग घर-बार छोड़कर उनके आश्रम आ रहे थे, अपनी संपत्तियों को उनके नाम कर रहे थे। जिस हिसाब से उनके अनुयायियों की तादाद बढ़ रही थी वह समाज, राजनीति और धर्म के परंपरागत ठेकेदारों को खौफ में भी डाल रही थी। उनके अनुयायी समाज में एक समानांतर सत्ता स्थापित करने की ओर बढ़ रहे थे। इसके साथ ही उनके अनुयायियों पर लोगों को सामूहिक तौर पर जहर देने के भी आरोप लगे और अमेरिकी प्रशासन उनके खिलाफ हरकत में आया।
एक खास समुदाय के रूप में ओशो को मानने या नहीं मानने से बड़ा सवाल है कि आखिर परंपरागत धर्म हमें कहां पर जकड़ देता है कि अगर एक संत आकर संवाद की बात करने लगता है तो वह नया लगने लगता है। खास तरह की दैहिक प्रक्रिया जो संसार के चलने का चक्र है को जब सारे धर्म वर्जनाओं में कैद कर देते हैं तो ओशो उसी में समाधि लगाने की बात करते हैं। वो चंचल मन को रोकने की मुखालफत करते हुए अपने शिष्यों से कह रहे थे कि इसे निकलने का रास्ता दोगे तो दिमाग खुद ब खुद शांत हो जाएगा। जीवन के आस्वादों को त्यागने के बजाय उसका स्वाद लो। स्वाद के प्रति मन को जागृत करोगे तभी उस स्वाद से ऊपर उठ पाओगे। शिष्यों को महसूस हुआ कि ये हमारी विचार करने की क्षमता को जागृत कर रहे हैं, हमें सोचने से, स्वाद लेने से रोक नहीं रहे हैं। और वे आजादी, खुशी, उत्सव, संभोग जैसी बातों से सम्मोहित होते जाते हैं। दर्शनशास्त्र के अध्यापक ने जीवन और धर्म का अपना नया दर्शन तैयार किया। उन्हें लगा कि अभी तक धर्म को जीवन विरोधी बना दिया गया है। साधारण जीवन को क्षुद्र, तुच्छ और माया कह कर खारिज करने के खिलाफ ही उन्होंने अपनी नई अवधारणा गढ़ी।
ओशो के प्रति लोगों की रूमानियत और उन पर समाज और शासन के हमलों की एक ही वजह थी कि उन्होंने संस्थागत धर्म के खिलाफ हल्ला बोल दिया था। भगवाधारी साधुओं को पाखंडी बता गृहस्थ धर्म के संसार की वकालत की और जीवन अस्तित्व को ही ईश्वर का प्रतीक बताया। इस तरह की स्वच्छंदता को समाज और शासन का परंपरावादी ढांचा पचा नहीं पाया और इनके अनुयायियों पर भी सवाल उठने लगे और हंसी, आजादी, स्वार्थहीनता और शरीर की संप्रुभता खोज रही ‘ओशो धारा’ सिकुड़ती चली गई। लेकिन संस्थागत धर्म की वर्जनाओं के खिलाफ उन्होंने जो मुक्ति संग्राम छेड़ा वह इतिहास का अहम हिस्सा तो बन ही गया।
इसके बावजूद एक सच यह भी है कि धर्म के जिस पारंपरिक ढांचे और रूढ़ अर्थ के दायरे से ओशो ने धर्म को बाहर निकालने का दावा किया, उनका पंथ भी उससे कितना बाहर और अलग रह सका। आखिर किन वजहों से उनके अनुयायी और उनके पंथ के कारवां को आगे बढ़ाने वाले कमोबेश या प्रकारांतर से उसी भावबोध के शिकार हुए, जिन पर ओशो ने कभी सवाल उठाए या फिर उनकी विवेचना करके दुनिया के लिए उन्हें अनुपयोगी बताया था। किन वजहों से रजनीश को एक नए भगवान के रूप में स्थापित करने की कोशिश हुई और पुराने को खारिज करने के बाद नए रास्ते की खोज का सिरा फिर पुराने से जुड़ता लगे तो उसे कैसे देखेंगे!