देश की सियासत में सबसे अधिक समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की सत्ता से पिछले 27 सालों से दूर है। जबकि मूलतः कश्मीरी ब्राह्मण नेहरू-गांधी परिवार की पारिवारिक सियासी जमीन यूपी ही रही है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी तक गांधी परिवार के सभी सदस्य यूपी से चुनाव लड़ते-जीतते रहे हैं। पिछले लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की तेज लहर में भी गांधी परिवार अमेठी (राहुल गांधी) और रायबरेली (सोनिया गांधी) की अपनी परंपारगत सीटें बचाने में कामयाब रहा। गांधी परिवार से इतनी नजदीकी के बावजूद यूपी की सियासत में कांग्रेस को समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बाद चौथे स्थान पर ही रखा जा रहा है। अगले साल होने वाले यूपी विधान सभा चुनावों को लेकर कांग्रेस ने अभी से कसर कस ली है लेकिन उसकी राह आसान नहीं नजर आ रही है। आइए एक नजर डालते हैं यूपी में अपनी खोई हुई सियासी जमीन वापस पाने की कोशिश करती कांग्रेस के सामने आ रही 5 मुश्किलों पर-
जवान देश, बूढ़ा नेतृत्व
कांग्रेस ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को यूपी में पार्टी के सीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश किया है। यूपी में 2012 में हुए विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के युवा नेता अखिलेश यादव को युवाओं का अच्छा खासा वोट मिला था। युवा और आधुनिक नेता की उनकी छवि ने बहुमत पाने में उनकी काफी मदद की थी। ताजा जनगणना के अनुसार देश की 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम उम्र वालों की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी को युवाओं के बीच ले जाने के लिए 75 साल से ऊपर के नेताओं को जिम्मेदारी वाले पदों से दूर रखने का अघोषित नियम सा बना दिया है। ऐसे में 78 साल की शीला को 43 साल के अखिलेश यादव को चुनौती देने के लिए उतारने से यही संदेश जाता है कि कांग्रेस अगले चुनाव में बस अपनी उपस्थिति बेहतर करना चाहती है। पार्टी के चुनावी रणनीतिकार की मूल कोशिश पार्टी की मौजूदा 29 विधान सभा सीटों का आंकड़े को यथासंभव बढ़ाना भर है। शीला की सीएम के पेश करना यूपी कांग्रेस की अंदरूनी कलह से बचाने और कुछ हद तक ब्राह्मण वोटरों को लुभाने भर के लिए है।
उम्मीद अपार गायब जनाधार
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी जिस तरह से पिछले कुछ दिनों में यूपी में सक्रिय हुए हैं उससे ये लगने लगा है कि पार्टी सूबे में अपनी स्थिति बेहतर करने को लेकर गंभीर है। उसे फौरी तौर पर भले ही चमत्कारी जीत की उम्मीद हो न हो लेकिन वो अपने राजनीतिक भविष्य को देखते हुए यूपी में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है। यूपी की वापसी की राह में पार्टी के सबसे बड़ा संकट ठोस जनाधार का अभाव है। यूपी में कांग्रेस तब तक ही मजबूत रही जब तक ब्राह्मण, दलित और मुसलमान उसके वफादार वोटर माने जाते रहे। अस्सी के दशक में उभरी मंडल और कमंडल की राजनीति नब्बे के दशक के शुरु होते होते अपने शबाब पर थी और यहीं से प्रदेश में कांग्रेस के पराभाव की शुरुआत हुई। अगड़ी जातियों के वोटर मंडल विरोधी मानी जाने वाली बीजेपी की तरफ चले गए तो मुसलमान कमंडल विरोधी बनकर उभरे समाजवादियों के साथ हो लिए। इसी दशक में कांशी राम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन करके यूपी के दलित मतदाताओं को एक नया झंडे और चुनाव चिह्न से परिचित कराया, जिसके संग दलित मतदाता कमोबेश आज तक बने हुए हैं। इस तरह कांग्रेस का मुख्य जनाधार तीन अलग अलग दिशाओं में बिखर गया। जिसे वापस लाना उसकी पहली चुनौती है। पंजाबी खत्री परिवार में जन्मीं और यूपी के ब्राह्मण राजनीतिक परिवार की बहू शीला को शायद इसी दिशा में की गई पहल है।
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बड़ा प्रदेश, बौने नेेता
यूपी में कांग्रेस की एक बड़ी दिक्कत किसी बड़े प्रादेशिक नेता की कमी भी है। कभी कांग्रेस के केंद्रीय सरकार में यूपी के नेताओं की मजबूत उपस्थिति हुआ करती थी लेकिन यूपीए-1 और यूपीए-2 के दौरान प्रदेश की जमीनी राजनीति से जुड़ा शायद ही कोई नेता हो जिसके पास केंद्रीय सरकार में कोई महत्वपूर्ण पद रहा हो। गिनती गिनाने को आज भी कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में प्रदेश के कई नेता हैं लेकिन उनमें से किसी की भी पहुंच पूरे तो दूर आधे प्रदेश तक नहीं है। विदेश मंत्री रहे सलमान खुर्शीद हों या अब यूपी की बहू के तौर पर पेश का जा रही शीला दीक्षित हों या राज बब्बर या जीतेंद्र प्रसाद इनमें से किसी भी नेता का प्रभाव दो-चार विधान सीटों से आगे जाते जाते दम तोड़ देता है। संक्षेप में कहें तो केंद्र या प्रदेश कांग्रेस में आज ऐसा कोई नेता नहीं है जिसके पीछे पूरे प्रदेश के कांग्रेसी कार्यकर्ता एकमत से एकजुट हो सकें। प्रदेश में कांग्रेस को दोबार जगह बनानी है तो उसे प्रभावशाली स्थानीय नेताओं की खेप तैयार करनी होगी जो आम लोगों को पार्टी से जोड़ सकें।
वंशवाद से होता प्रतिभा पलायन
देश में शायद ही ऐसी कोई पार्टी हो जिसमें परिवारवाद या वंशवाद न हो लेकिन कांग्रेस में इसकी जड़ें सबसे गहरी हैं। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में अभी भी “खानदानी” लोगों को जिस कदर दबदबा है उसे देखते हुए राजनीति में रुचि रखने वाले युवाओं को कांग्रेस में कोई भविष्य नजर नहीं आता। कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व में ऐसे नेताओं की कमी साफ महसूस की जा सकती है तो अपने परिवार के पहली पीढ़ी के नेता हैं। कांग्रेस आलाकमान माने या न माने आम जनता की नजर में पार्टी में सोने या कम से कम चांदी का चम्मच लेकर पैदा होने वालों का ही भविष्य उज्जवल दिखता है। कहीं न कहीं कांग्रेस पार्टी राजशाही के दौर की याद दिलाती है, जिसमें राजा का बेटा राजा, सेनापति का बेटा सेनापति और महामंत्री का बेटा महामंत्री होता था। कांग्रेस के उलट बीजेपी में साधारण पृष्ठभूमि से आने वाले नेताओं की अच्छी-खासी संख्या है। अगर बात यूपी की करें तो बहुजन समाज पार्टी और बीजेपी परिवारवाद के आरोप से लगभग पाक-साफ बच जाते हैं। समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव को सीएम की कुर्सी पारिवारिक विरासत के तौर पर जरूर मिली है लेकिन सपा का परिवार अभी ताजा है जबकि कांग्रेस का करीब 100 साल पुराना। ऐसे में दोनों के प्रति जनता के रुख में भी अंतर दिखता है। साथ ही अखिलेश का युवा होना और यादव वोटरों की प्रदेश में बड़ी संख्या परिवारवाद दाग को छिपा लेते हैं। और अगर मुसलमान वोटर साइकिल पर सवार हो जाएं तो अखिलेश बहुत मजबूत हो जाते हैं। सपा के उलट कांग्रेस के पास न तो प्रदेश में कोई युवा चेहरा है, न ठोस जनाधार और न ही विधान सभा चुनावों में गैर-बीजेपी वोटरों को लुभाने की क्षमता।
लचकते कंधे और पायरेटेड प्रचार अभियान
यूपी हो या कोई और प्रदेश कांग्रेस के खस्ताहाल होने में केवल प्रदेश स्तर की समस्याएं नहीं जिम्मेदार हैं। एक मजबूत केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पार्टी से जोड़ने में अहम भूमिका निभाता है। कांग्रेस ने केंद्र में 10 साल गठबंधन सरकार भले ही चलाई हो लेकिन पार्टी में ऐसे नेता की कमी साफ महसूस होती है जो 130 साल पुरानी कांग्रेस का जुआ उठा सके। कांग्रेस एक दशक से अधिक समय से राहुल गांधी को पार्टी के नेता के तौर पर तैयार करती नजर आ रही है लेकिन अभी तक राहुल ये भरोसा नहीं जगा पाए हैं कि वो 120 करोड़ से अधिक आबादी वाले देश की उम्मीदों को बोझ उठा सकते हैं। देश जब भी राहुल की तरफ आस भरी नजरों से देखता है तो उनके कंधे लचकते नजर आते हैं। उनमें करिश्माई नेतृत्व का अभाव भी साफ झलकता है। मजबूत जातिगत आधार के बिना भी जनता को अपने से जोड़ने के मामले में राहुल में नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार या अरविंद केजरीवाल जैसे करिश्मे नहीं दिखता।
नेतृत्व के अभाव के अलावा कांग्रेस के चुनावी रणनीति या प्रचार योजना में भी किसी तरह की नवीनता का सर्वथा अभाव है। पार्टी ने 2014 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी के लिए काम कर चुके और 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में नीतीश कुमार के लिए काम कर चुके प्रशांत किशोर को रणनीतिकार के तौर पर चुना है। किशोर अभी तक कांग्रेस के लिए कोई संजीवनी नहीं खोज सकें। उनकी अब तक की कुल उपलब्धि यही मानी जा सकती है कि वो यूपी की राजनीति में कांग्रेस को खबरों में ले आए हैं। नरेंद्र मोदी की चाय की चर्चा की नकल पर उन्होंने राहुल के लिए खाट सभा पेश की है। ये भी खबर है कि नीतीश कुमार के शराबबंदी की तर्ज पर कांग्रेस यूपी में शराबबंदी को मुद्दा बनाने वाली है। अब इन पायरेटेड तरीकों से किशोर कांग्रेस में नई जान फूंक सकेंगे इस पर गहरा संदेह है।

