रंजना मिश्रा

गरीबी केवल आर्थिक मुद्दा नहीं, बल्कि एक बहुआयामी समस्या है। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में बताया गया है कि किसी एक विशेष कारण के चलते नहीं, बल्कि अलग-अलग कारणों से लोगों को गरीबी में जीवन बिताने पर मजबूर होना पड़ता है। भोजन, घर, जमीन, स्वास्थ्य जैसे गरीबी के कई पहलू हैं। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि हमें एक स्थायी भविष्य के निर्माण के लिए गरीबी और भेदभाव को मिटाने की दिशा में अपने प्रयास और तेज करने तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी लोग अपने मानवाधिकारों का पूर्ण उपयोग कर सकें।

हाल ही में विश्व असमानता लैब द्वारा जारी विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत दुनिया के सबसे असमान आय वाले देशों में है। इसमें बताया गया है कि दुनिया की सबसे गरीब आधी आबादी के पास कुल संपत्ति का सिर्फ दो प्रतिशत हिस्सा है, जबकि दुनिया की सबसे अमीर दस प्रतिशत आबादी के पास कुल संपत्ति का छिहत्तर प्रतिशत हिस्सा है। मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका दुनिया के सबसे असमान क्षेत्र हैं, जबकि यूरोप में असमानता का स्तर सबसे कम है।

काम से होने वाली कुल आय में महिलाओं की हिस्सेदारी 1990 में लगभग 30 प्रतिशत थी जो अब 35 प्रतिशत से भी कम है। देशों में सबसे अधिक आय वाले दस प्रतिशत और सबसे कम आय वाले पचास प्रतिशत व्यक्तियों की औसत आय के बीच का अंतर लगभग दोगुना हो गया है। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि पिछले चालीस वर्षों में देश तो काफी अमीर हो गए हैं, लेकिन उनकी सरकारें काफी गरीब हो गई हैं। कोविड महामारी के बाद आए आर्थिक संकट के चलते भी गरीबी तथा असमानता बढ़ी है।

वर्ष 2022-23 के लिए गरीबी उन्मूलन की अंतरराष्ट्रीय दिवस की विषय-वस्तु सभी के लिए गरिमा या सम्मान रखी गई थी। वास्तव में प्रत्येक मनुष्य की गरिमा या सम्मान उसका अपना मौलिक अधिकार होता है और उसकी रक्षा जरूरी है। पर गरीबी में जी रहे लोग स्वयं को उपेक्षित और तिरस्कृत महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें नकारा और उनका अनादर किया जा रहा है। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए गरीबी को समाप्त करना और हर जगह शांति और समृद्धि स्थापित करना प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए।

मगर वर्तमान स्थितियों में 1.3 अरब लोग अब भी गरीबी में जी रहे हैं, जिनमें से लगभग आधे बच्चे और युवा हैं। हाल में लोगों के बीच आय और अवसरों की असमानता का स्तर तेजी से बढ़ा है। हर साल अमीर-गरीब के बीच की खाई और अधिक चौड़ी होती जा रही है। एक ओर गरीब और अधिक गरीब होता जा रहा है, वहीं अरबपति वर्ग की संपत्ति में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है।

दरअसल, गरीबी और असमानता गलत फैसलों और निष्क्रियता का परिणाम है। हमारे समाज में अमीर लोग गरीबों और हाशिए पर रहने वाले लोगों को और अधिक कमजोर और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। सामाजिक बहिष्कार, संरचनात्मक भेदभाव और अशक्तता जैसे कारक गरीबी में फंसे लोगों का जीवन और कठिन बना देते हैं। इसके अलावा सूखा, बाढ़ आदि जलवायु परिवर्तन आपदाओं की मार भी गरीब वर्ग पर ही सबसे अधिक पड़ती है।

आज दुनिया में जब आर्थिक विकास, तकनीकी साधनों और वित्तीय संसाधनों की बढ़ोतरी का दावा किया जा रहा है, तब दुनिया के करोड़ों लोगों का गरीबी में रहना बिल्कुल अपेक्षित नहीं है। किसी भी देश में गरीबों की लाचार स्थिति उस देश के आर्थिक विकास के दावों पर प्रश्नचिह्न लगाती है। गरीबी का अर्थ है सम्मान से जीने की बुनियादी क्षमता का अभाव, इसलिए गरीबी को केवल आर्थिक मुद्दा नहीं समझना चाहिए। गरीबों को अधिकतर अपनी आजीविका के लिए ऐसे काम भी करने पड़ते हैं, जो उनके स्वास्थ्य और उनकी जान के लिए खतरनाक होते हैं। उन्हें असुरक्षित आवासों में रहना पड़ता है।

उन्हें पौष्टिक भोजन उपलब्ध नहीं हो पाता। न्याय तक उनकी पहुंच नहीं हो पाती। स्वास्थ्य सुविधाओं तक भी उनकी सीमित पहुंच होती है। अत्यधिक गरीबी की स्थिति में भूख और कुपोषण का सामना करना, शिक्षा और अन्य बुनियादी सेवाओं तक सीमित पहुंच होना, सामाजिक भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार तथा निर्णय लेने में भागीदारी का अभाव आदि शामिल हैं।

तेजी से बढ़ती जनसंख्या, अशिक्षा और निम्न मानव विकास, लगातार बढ़ती बेरोजगारी, देशों में पूंजी की कमी, अल्पविकसित अर्थव्यवस्था, मूल्य में वृद्धि, अर्थव्यवस्था का पारंपरिक स्वरूप, पर्याप्त कौशल विकास का न होना, उद्यमिता का विकास न होना, समुचित औद्योगीकरण का अभाव, पिछड़ी सामाजिक संस्थाएं, भ्रष्टाचार, आधारभूत संरचना की कमी, भूमि और दूसरी संपत्तियों का असमान वितरण और गरीबी का दुश्चक्र आदि गरीबी के मुख्य कारण हैं। गरीबी में जी रहे लोग अपने बच्चों को श्रम बाजार में धकेल देते हैं। दुनिया के लगभग 60 प्रतिशत बाल श्रमिक कृषि क्षेत्र में पाए जाते हैं।

ये बच्चे अक्सर खतरनाक परिस्थितियों में काम करने को विवश होते हैं, जिससे बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। गरीबों के बीच महिलाओं और पुरुषों की स्कूली शिक्षा का अंतराल, सामान्य स्तर के लोगों के मुकाबले दोगुने से अधिक है। विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, 2030 तक भारत में लगभग ढाई करोड़ परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने में सफलता मिलेगी और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की हिस्सेदारी 15 फीसद से घट कर केवल 5 फीसद रह जाएगी। भारत सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2011 की जनगणना में देश की करीब 22 फीसद आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी। समय के साथ देश में गरीबी में कमी तो आई है, लेकिन शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी में कमी की दर अब भी धीमी है।

गरीबी उन्मूलन के लिए सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम जैसी कई योजनाओं और कार्यक्रमों की शुरुआत की है। पर अब भी भारत में गरीबी रेखा का निर्धारण करना एक प्रमुख चुनौती है। अब भी कोई ऐसा मान्य मापदंड नहीं है, जिससे गरीबी की वास्तविक स्थिति को परिभाषित किया जा सके। इसके साथ ही गरीबी उन्मूलन के लिए संसाधन पर्याप्त रूप से उपलब्ध नहीं हैं। गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार के कारण योजनाओं का लाभ लाभार्थी तक नहीं पहुंच पाता। कार्यक्रमों और योजनाओं का उचित क्रियान्वयन नहीं हो पाता। लगातार बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में देश के संसाधनों का विकास कम होता है, जिसके कारण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाते।

गरीबी रेखा का निर्धारण करने के लिए वैज्ञानिक तरीका अपनाया जाना चाहिए, जिससे वास्तविक गरीबों की पहचान की जा सके और उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ दिया जा सके। ग्रामीण गरीबों में अधिकतर छोटे किसान शामिल होते हैं। उनकी गरीबी दूर करने और खाद्य सुरक्षा बढ़ाने के लिए कृषि उत्पादकता में सुधार, संसाधनों और प्रौद्योगिकी तथा बाजार तक उनकी पहुंच बढ़ाने की आवश्यकता है।

स्थानीय रोजगार सृजन को प्रोत्साहित करके ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में गरीबी कम करने का प्रयास होना चाहिए। गरीब महिलाओं को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ाकर उनकी आय के स्तर में सुधार किया जा सकता है। सामाजिक सुरक्षा को बेहतर बनाकर, गरीबों की आजीविका में सुधार, बेहतर जोखिम प्रबंधन और उनके बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा को बढ़ाने में मदद की जा सकती है। इससे लोगों के बीच असमानता भी कम होगी। गरीबों को स्वस्थ और संतुलित आहार उपलब्ध कराना बहुत जरूरी है, जिससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास तो होगा ही, श्रम की उत्पादकता में भी वृद्धि होगी।