मुख्यधारा के जनसंचार के साधनों पर जब विपक्ष को पूरी तरह खारिज कर दिया गया तो इंटरनेट योद्धाओं से विपक्ष को मिला, ‘दिखो या मरो’ का नारा। सत्ता के विमर्श की काट पर ध्रुव राठी जैसे लोगों के वीडियो ने धूम मचा दी। उनके वीडियो की तुलना सत्ता के शीर्ष नेताओं से की जाने लगी जो दिखने व पसंद किए जाने में बढ़त ले जाने लगे। विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने उस मीडिया को पूरी तरह खारिज कर दिया जिसने उन्हें पप्पू साबित करने की कोशिश की और अपने निजी वीडियो से लोगों तक अपनी बात पहुंचाने लगे। जब टीवी पर पक्ष और विपक्ष का संतुलन नहीं था तो इसकी जिम्मेदारी यूट्यूबरों ने संभाली। टीवी पर पक्ष तो फोन पर विपक्ष को सुन कर जनता अपना मन बना रही थी। इंटरनेट के जरिए विपक्ष की आवाज का जिस तरह ‘ध्रुवीकरण’ हुआ उसने 2024 को ‘आइटी सेल’ की लड़ाई भी बना दिया, जिसमें इस बार सत्ता पक्ष वाले 2019 की तुलना में कमजोर साबित हुए। विपक्ष के लिए इंटरनेट योद्धाओं का ध्रुवीकरण और चुनावी जमीन पर पड़े उसके असर को लेकर बेबाक बोल।
उषा मेहता के जज पिता रेडियो पर विंस्टन चर्चिल का भाषण सुन कर खुश हो रहे हैं कि हिंदुस्तानियों का भाग्य जो अंग्रेज उन्हें जापानियों और जर्मन से सुरक्षा दे रहे हैं। लंदन में दिया चर्चिल का भाषण पूरी दुनिया में गूंज रहा है। कानून की विद्यार्थी उषा उस रेडियो की अहमियत समझ चुकी है जो हिंदुस्तान की जमीन पर बैठे उसके ‘गुलाम’ पिता को चर्चिल का मुरीद बना देता है। ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन’ को नाकाम करने के लिए गांधी, नेहरू समेत सभी बड़े नेताओं को ब्रितानी हुकूमत जेल भेज देती है। अब देश की जनता को लामबंद कैसे किया जाए?
‘कांग्रेस रेडियो’ के माध्यम से कम संसाधनों में सबको संदेश भेजा जा सका
उषा मेहता की अगुआई में कुछ युवा भूमिगत होकर ‘कांग्रेस रेडियो’ शुरू करते हैं और गांधी-नेहरू के रिकार्ड किए भाषण से देश की जनता को जोड़ते हैं। राममनोहर लोहिया इस ‘कांग्रेस रेडियो’ की अहमियत समझ कर इससे देश की जनता को तब एकजुट करते हैं जब आजादी की लड़ाई की अगुआई कर रहे सभी बड़े नेता जेल में थे। ‘कांग्रेस रेडियो’ ही वह माध्यम बना जिससे कम संसाधनों में एक साथ, एक समय में सबको संदेश पहुंचाया जा सकता था।
सत्ता का विकल्प बनने के लिए विपक्ष ने वैकल्पिक मीडिया का सहारा लिया
स्वतंत्रता सेनानी उषा मेहता की जिंदगी से प्रेरित फिल्म ‘ऐ वतन, मेरे वतन’ की कहानी को लोकसभा चुनाव 2024 की तरफ ले जाते हैं। मुख्यधारा के जनसंचार के सारे माध्यमों का झुकाव सरकार की तरफ हो चुका था तो सांगठनिक और अन्य संसाधनों के संदर्भ में तबाह विपक्ष क्या करता? इतिहास खुद को दोहराता है, लेकिन रूप बदल कर। 2014 के पहले तक शासन था यूपीए का तो जाहिर सी बात है, जनसंचार के साधनों का झुकाव भी उसकी तरफ था। विपक्ष जो सत्ता का विकल्प बनना चाहता था उसने अपनी बात रखने के लिए वैकल्पिक मीडिया को चुना। इंटरनेट के जरिए ऐसा विमर्श बना कि कांग्रेस ‘भूतो न भविष्यति’ जैसी भ्रष्टाचारी सिद्ध हो गई। मनमोहन सिंह एक मौन नेता के रूप में जनता की दिमागी किताब के प्रथम अध्याय में चस्पा कर दिए गए।
2014 के पांच साल बाद आता है, 2019। इस वक्त तक भी विकल्प वाले सत्ता का संकल्प बन कर आभासी मीडिया पर अपनी बढ़त बनाते हुए राहुल गांधी को पप्पू और विपक्ष को परिवारवादी, भ्रष्टाचारी साबित करते रहे। अब तक विपक्ष मुख्यधारा के जनसंचार के माध्यमों से पूरी तरह खारिज हो चुका था। विपक्ष के पास वैकल्पिक मीडिया का ही विकल्प बचा था तो उसने इसी माध्यम से ‘दिखो या मरो’ का जज्बा दिखाया।
वैकल्पिक मीडिया पर उभरे ‘ध्रुवतारा’ ने इस तरह से विपक्ष की भूमिका निभाई कि जनता उसकी मुरीद हो गई। ध्रुव राठी पक्ष के सामने खड़े वह प्रतिपक्ष थे जो सत्ता के हर विमर्श को अपने नए वीडियो से खारिज कर देते। कैमरा, इंटरनेट और ध्रुव राठी ने विपक्ष के लिए जो ध्रुवीकरण किया उसी का अंजाम था कि विपक्ष के लिए इंटरनेट प्रवक्ताओं की फौज खड़ी हो गई। सांगठनिक मीडिया में कमजोर विपक्ष ‘एकला दिखो रे’ के साथ ही जूझ पड़ा। सत्ता के शीर्ष नेताओं के भाषण के वीडियो की दृश्यता की तुलना ध्रुव राठी के वीडियो से की जाने लगी। ध्रुव राठी द्वारा विपक्ष के लिए किए ध्रुवीकरण का यह असर हुआ कि सरकार के हर दावे-वादे के बाद उनके वीडियो का इंतजार होने लगा कि क्या जवाब आता है।
2014 के बाद सत्ता पक्ष ने ‘आइटी सेल’ को अपना सबसे बड़ा हथियार बनाया था, और वाट्सऐप के जरिए हर किसी तक पहुंचने में इसका कोई तोड़ नहीं था। दिल्ली में केजरीवाल तो बिहार में राजद ने इसका इस्तेमाल शुरू किया। विपक्ष ने इसकी संगठित प्रयोगशाला बना कर ‘ध्रुवीकरण’ को अपने पक्ष में कर इसका जबरदस्त दायरा बढ़ाया। इंटरनेट के जरिए एक अकेला सब पर भारी दिखने लगा तो व्यक्तिगत स्तर पर अन्य लोगों ने भी पूरी जोर आजमाइश की। खास कर चुनावी बांड से लेकर परिवारवाद पर एकतरफा आरोप, रोजगार के मसलों को जनता तक पहुंचाया। लोगों को उनके स्मार्ट फोन पर विपक्ष बहुत हद तक यह समझाने में सफल हुआ कि वह कितने कम संसाधनों के साथ चुनाव लड़ रहा है।
खास कर राहुल गांधी ने उस मुख्यधारा के मीडिया को पूरी तरह नकार दिया जिसने उन्हें पप्पू साबित करने की कोशिश की। राहुल गांधी भी अपने निजी वीडियो के साथ जनता तक पहुंचने लगे। मुख्यधारा का मीडिया एक पक्ष के साथ ही ‘पप्पू पुराण’ दिखाने को मजबूर हुआ जिससे उसकी विश्वसनीयता कम हुई और दर्शकों को लगने लगा कि ‘एंकारिता’ उन्हें ही पप्पू बना रही है। टीवी पर सरकार तो ‘स्मार्ट फोन’ के स्क्रीन पर विपक्ष का संतुलन जनता ने खुद तैयार कर लिया। टीवी एंकरों को यूट्यूब से मिली चुनौती की खीझ थी कि एग्जिट पोल में राजग सरकार को चार सौ पार बताते हुए यूट्यूबरों का मजाक उड़ाया गया। यह दूसरी बात है कि नतीजे आने के बाद वे खुद मजाक बन गए।
आभासी मीडिया में तो विपक्ष आगे हुआ, इसके बावजूद चुनाव में सबसे अहम थी जमीनी लड़ाई। आभासी मंच पर मिली जीत जमीन पर सांगठनिक कमजोरी की कमी को पूरा नहीं कर सकती थी। इसी जमीन पर कांग्रेस कमजोर कड़ी साबित हुई। उत्तर भारत में ज्यादातर जगहों पर उसका सांगठनिक ढांचा चरमरा चुका था, इसलिए वहां उसने सहयोगी दलों का सहारा लिया। खास कर उत्तर प्रदेश की बात करें तो समाजवादी पार्टी का सांगठनिक ढांचा कांग्रेस के लिए संजीवनी बना। विपक्ष मजबूत हुआ तो संगठन साम्राज्ञी ममता बनर्जी की वजह से भी।
सोशल मीडिया विमर्श के क्षेत्र में आपको बढ़त दिला सकता है, लेकिन वह आपके मतदाता को मतदान केंद्र तक नहीं पहुंचा सकता है। 2024 के लोकसभा चुनाव में आम लोगों का अनुभव रहा कि बड़ी रैलियों को छोड़ घर-घर पहुंचने वाला प्रचार बहुत कम हुआ। आम जनता की शिकायत थी कि उनके घरों तक किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता या नेता वोट मांगने नहीं आया। यहां तक कि घर-घर दस्तक देकर मतदाता-पर्ची पहुंचाने वाले भी गायब थे। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा को लेकर संघ का ‘अक्षत’ घर-घर (संगठन) पहुंचा, लेकिन वोट मांगने के लिए उनके कार्यकर्ता भी कम पहुंचे।
इस आभासी लड़ाई का असर हुआ कि कई लोगों ने ध्रुव राठी या अमित मालवीय के वीडियो को लाइक, शेयर तो कर दिया लेकिन वोट देने नहीं पहुंचे। जनता सत्ता पक्ष की नकारात्मकता से सूचित हुई लेकिन वोट नहीं दिया तो फिर वह सकारात्मक नहीं हो सकता। वीडियो और वोट के बीच वह सांगठनिक ढांचा ही है जिसे इस बार सत्ता पक्ष ने भी नजरअंदाज किया। इसी का अंजाम दिखता है दिल्ली, मुंबई सहित कई जगहों पर मतदान फीसद में गिरावट आना।
सत्ता पक्ष को अति आत्मविश्वास था कि प्रधानमंत्री का भाषण टेलीविजन, अन्य मीडिया घर-घर पहुंचा देगा और लोग पहले की तरह एकतरफा रहेंगे। लेकिन, बिना संगठन के भाषण भी जनता तक भाषांतरित नहीं हो सकता है। खास कर चुनाव प्रबंधन वाले कारोबारियों ने जिस तरह से चुनाव का व्यावसायीकरण कर दिया उसने सोशल मीडिया पर तो चुनाव को आसमान पर रखा, लेकिन जमीन तले किसकी पांव खिसकी यह गिरने के बाद ही पता चला।
दस साल बाद भारत के लोकतंत्र को विपक्ष मिला है तो वह संगठन के जरिए ही। चुनावी पारदर्शिता, मौकों की बराबरी के लिए संघर्ष करना, स्मार्ट फोन की स्क्रीन से निकाल कर लोगों को ईवीएम के बटन तक पहुंचाना, वीवीपैट से लेकर ईवीएम गणना केंद्रों पर मुस्तैदी ये वो चीजें हैं जिसकी वजह से इस बार विपक्ष से लेकर संस्थाओं की साख भी चमकी। आभासी ध्रुवीकरण को वही ईवीएम तक पहुंचा पाएगा जो स्मार्ट फोन से निकल कर जनता से सीधे संवाद कर सके, वोट में तब्दील कर सके, राजनीति विज्ञान की भाषा में इसे संगठन कहते हैं। ध्रुवीकरण के साथ जमीनीकरण का संदेश मिल चुका है।