बागियों में बहार है? अगर यह सवाल हिमाचल प्रदेश व कांग्रेस के संदर्भ में पूछा जाए तो आश्चर्यजनक रूप से इसका जवाब होगा-न, न, न। हिमाचल जैसे छोटे राज्य ने विधानसभा चुनाव के बाद दूसरी बार कांग्रेस को ही बड़ा संदेश दिया है। बागियों की मान-मनौव्वल करने के बजाय उनके साथ अनुशासनिक भाषा में पेश आया जाए। सत्तर साल में जिन परिवारवादी नेताओं का जमघट लगा है वे अपनी अंतरात्मा की आवाज का हवाला देकर कुछ कहें तो उस आवाज को सार्वजनिक समीक्षा में लाया जाए कि इस आवाज का शरीर या आत्मा से कोई संबंध है भी या वह सिर्फ सत्ता की कुर्सी के पक्ष में निकलती है। बागी कांग्रेस पार्टी के भविष्य के लिए नहीं, बल्कि अपने सियासी भविष्य के लिए बगावत करते हैं। समूह-23 के नेताओं ने खुला पत्र लिख कर पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाया तो इसलिए क्योंकि वे केंद्रीय सत्ता से दूर हो चुकी पार्टी में रहने में अपनी किसी तरह की भलाई नहीं देख रहे थे। हिमाचल में कांग्रेस के राजनीतिक वसंत से दिखते मौसम में फिलहाल बागियों की कम होती बहार पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।
बहुत समय पहले की बात है। किसी राज्य में एक राजा था…हितोपदेश की शैली की इस कहानी और कहानी के कथ्य को समझने के लिए हिमाचल प्रदेश चलते हैं। कहानी है कांग्रेस की, जिसे अपने सबसे बुरे समय में एक अच्छा राजनीतिक संदेश मिला था इस पहाड़ी सूबे से। अपने अस्तित्व को बचाने में जुटी कांग्रेस ने संदेश से सतर्क होते हुए ‘मुंह में सोने की चम्मच’ वाली राजा-रानी की विरासती राजनीतिक दावेदारी पर विराम लगाते हुए प्रदेश की कमान सुखविंदर सिंह सुक्खू को सौंपी।
यह कोई पर्ची से निकला चौंका दिया, चौंका दिया वाला नाम नहीं था। यह पार्टी को नई दिशा देने के लिए सोचा-समझा कांग्रेस में शुरू हुआ नया-नया काम था। सुखविंदर सिंह सुक्खू हिमाचल की जमीन से तैयार हुए नेता हैं, जिन्हें विरासती चेहरों पर कांग्रेस आलाकमान ने तरजीह दी थी। एक अहम बिंदु यह भी कि हिमाचल प्रदेश में सुक्खू को वीरभद्र सिंह के विरोधी के रूप में देखा जाता रहा है।
देश में अभी पहली और सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति भारतीय जनता पार्टी है। कांग्रेस की लड़ाई ऐसी सत्ता से है जो अपनी राजनीतिक सतर्कता से एक क्षण भी इधर-उधर नहीं होती है। चुनावी सीटों के अखिल भारतीय नक्शे पर भाजपा की रणनीति हर उस सीट के वोट जिताऊ कांग्रेसी या विपक्षी नेता को अपने पाले में कर लेना है जो किसी सीट को विपक्ष की सीट में तब्दील करने की काबिलियत रखते हैं।
महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और बिहार के बाद राज्यसभा चुनाव के जरिए जिस तरह हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता पर संकट आया उसका सकारात्मक पहलू है, पार्टी का उसका सामना करना। राजस्थान के बाद हिमाचल में भी कांग्रेस ने मान-मनौव्वल की जगह अनुशासन और कार्रवाई की भाषा का प्रयोग किया। पार्टी में संकट का सामना करने की ताकत दिखी।
आजादी के बाद से सत्तर सालों तक शासन के कारण कांग्रेस में शीर्ष से लेकर निचले स्तर तक परिवारवादियों का जमघट लग गया। इनमें से बहुत शाही विरासत के भी चेहरे थे जो अब भी शासन में अपनी संतति की दावेदारी को कुदरती अधिकार मानते हैं। इस मानसिकता के अंत की पहल सबसे पहले कांग्रेस पार्टी के आंतरिक चुनाव से हुई और मल्लिकार्जुन खरगे राष्ट्रीय अध्यक्ष बने।
खरगे किसी भी तरह से कठपुतली अध्यक्ष की छवि नहीं रखते हैं। कई मामलों में देखा गया कि उनकी परिपक्व राजनीतिक समझ से पार्टी मुश्किल में जाने से बची। इसके बाद राजस्थान में सचिन पायलट को भी मुख्यमंत्री पद का कुदरती वारिस मानने से परहेज किया गया। पार्टी वहां विधानसभा चुनाव हार गई जिसकी कई वजहें हैं, लेकिन वहां से अनुशासन की जो आधारशिला रखी गई उसका मजबूत सा बनता खंभा हिमाचल प्रदेश में दिखा।
मध्य प्रदेश में भी कमलनाथ ने राज्यसभा के टिकट की दौड़ में इधर से उधर जाने की अपनी हलचल दिखाई उसे भी आलाकमान ने नजरअंदाज करते हुए उन्हें आगे की पारी देने से इनकार करते हुए प्रणाम कर दिया। जब कांग्रेस ने ही इशारा किया कि आप जा सकते हैं तो भाजपा की तरफ से आपत्ति उठाई गई कि दंगों के दागी को लेकर हमारा क्या भला होगा?
हिमाचल प्रदेश में जिन छह विधायकों पर पार्टी लाइन से हटकर विप के उल्लंघन का आरोप लगा उनके खिलाफ अयोग्यता का प्रस्ताव लाया गया। विधानसभा अध्यक्ष ने सभी छह विधायकों को अयोग्य ठहरा दिया। ऐसा नहीं होता तो इस विप के उल्लंघन को फिर से कांग्रेस की कमजोरी और केंद्रीय सत्ता पक्ष की सियासी महारत की महानता के रूप में देखा जाता।
और, राजनीतिक विचारधारा का मुद्दा कहीं किसी कोने में उपेक्षित पड़ा रह जाता। अनुशासन के दायरे में लाने के बाद बजरिए हिमाचल कांग्रेस ने राजनीतिक विचारधारा के मुद्दे को बीच बहस में लाने की कोशिश तो की। यह संभव हो पाया सदन के अंदर विधान और संविधान की भाषा को लेकर साथ चलने के कारण।
इसके पहले जी-23 समूह वाला मामला ही देखें तो उस वक्त तक पार्टी वही ‘तुम इतना रूठा न करो मेरी जान निकल जाती है’ वाली मान-मनौव्वल की नीति पर चल रही थी। जबकि उस वक्त भी स्पष्ट था कि 23 नेताओं का यह समूह अपने हितों को देखते हुए इकट्ठा हुआ था। उन्हें कांग्रेस के भविष्य से ज्यादा पार्टी में अपने भविष्य की चिंता थी। जो नेता पार्टी को लेकर अपने सारे राजनीतिक कर्त्तव्य को भूल कर सिर्फ अपने अधिकारों की बात कर रहे थे, उन्हें मनाने में आलाकमान ने अपनी ऊर्जा झोंक दी जिससे पार्टी की स्थिति और बिगड़ी।
हिमाचल प्रदेश में बागी नेता जैसी भाषा बोल रहे थे उसे सुन कर लग रहा था कि सत्ता में भागीदारी उनका कुदरती अधिकार तो है लेकिन सत्ता बनी कैसे रहे इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। कांग्रेस के पहले के हाल को देखते हुए लग रहा था कि हिमाचल में अगले सूर्योदय तक कोई और मुख्यमंत्री शपथ ले सकता है, लेकिन, इस बार नए मुख्यमंत्री ने शपथ नहीं ली। बागियों की बहार खत्म होते देख बागी नेता ने ‘मैं दबाव में रहता नहीं, दबाव देता हूं’ जैसा संवाद बोल कर अपनी शाही शान बरकरार रखने की पूरी कोशिश की। वहीं रानी साहिबा अभी भी इसके नतीजे लोकसभा चुनाव में देखने की बात कहती सुनी गईं।
अभी जिस तरह से कोई न कोई बहाना बनाना और उसे अंतरात्मा की आवाज बता कर केंद्रीय सत्ता के कारवां में शामिल होने की परिपाटी चल रही है, वैसे में वह वक्त आ गया है कि ऐसा बोलने वालों की आवाज से सख्ती से पूछा जाए कि सुनिए आवाज जी, आपका इस शरीर और उसकी आत्मा से कोई संबंध है भी क्या? उनकी जुबान और आत्मा के संबंध पर जनता के बीच खुले में अनुशासन के साथ बात हो न कि बंद दरवाजे के अंदर अच्छा न मेरी, न आपकी, अब तो मान जाओ वाली भाषा बोल कर।
पिछले दिनों पत्रकार व उसके ‘मालिक’ की जाति पूछ कर विवादों में आए राहुल गांधी को भी हिमाचल से सबक लेने का समय आ गया है कि आम के सवाल में भी इमली का जवाब देना यानी कि हर मंच पर जाति जनगणना की बात बोल लेने भर से आपकी राजनीति का कोई भला नहीं हो सकता है। वैसे भी पत्रकार की जाति पर सवाल पूछने के बाद राहुल गांधी से भी सवाल पूछा ही जा रहा है कि कांग्रेस के अपने मुखपत्रों की कमान किस जाति के पत्रकारों के हाथों में है? जवाब का इंतजार रहेगा।
राहुल गांधी को यह भी याद दिलाने का वक्त है कि कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश जाति जनगणना नहीं पेंशन के मुद्दे पर जीता था। हिमाचल में जिस तरह पर्यवेक्षकों ने पार्टी को सत्ता में बने रहने का पाठ पढ़ाया उसी तरह राहुल गांधी को भी अपनी भाषण नीति के पर्यवेक्षण की जरूरत है। भारतीय राजनीति में जाति की हांडी चढ़ चुकी है। इसमें अन्य मूल खिलाड़ी मैदान में डटे ही हुए हैं तो फिर वो इसके जरिए अपनी कितनी ही बढ़त ले जाएंगे?
भारतीय राजनीति में जाति को हर कोई अपनी तरह से परिभाषित कर रहा है। सत्ता पक्ष महिला, किसान, गरीब और युवा चार जातियों को बताता है। लेकिन, महाराष्ट्र से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर हिमाचल प्रदेश तक देखा जाए तो भारतीय राजनीति में एक ही जाति है और वह है सत्ता से संबंध की जाति। सारी जातियों की गोलबंदी ही सत्ता की ओर होती है चाहे वे वैचारिक रूप से धुर विरोधी ही क्यों न हों।
हिमाचल से कांग्रेस ने एक बार फिर संकेत दिया है कि उसकी राजनीति सकारात्मक दिशा में जा सकती है। नीतिगत मुद्दों पर राजनीति की जमीन अभी खत्म नहीं हुई। हिमाचल जैसे छोटे से राज्य में एक राज्यसभा की सीट गंवाने के बाद जो बड़ा संदेश मिला है कांग्रेस को उसका अभ्यास करते रहना चाहिए। क्षेत्रीय क्षत्रपों की तरह जाति की राजनीति करना छोड़ वह राष्ट्रीय पार्टी की राजनीति का अभ्यास ही करे। कांग्रेस आलाकमान ने सुना तो होगा ही, करत करत अभ्यास के…।