कहते हैं कि इतिहास जीतने वालों की कलम से लिखा जाता है। सिर्फ इतिहास ही नहीं, कई शब्द और उसके शब्दार्थ भी जीतने वाले अपने हिसाब से राजनीति के व्याकरण का हिस्सा बनाते हैं। 2014 में परिवार को भ्रष्टाचार का पर्याय बना दिया गया। अपने बच्चे के स्कूल दाखिले से लेकर रिश्तेदारों को कहीं का अध्यक्ष बनाने के लिए बड़े मंत्रियों से चिरौरी करने वालों के लिए अपने निजी परिवारवाद के पाप से बचने के लिए ‘गंगा स्नान’ का इंतजाम हुआ।
बस, राहुल गांधी और उत्तर-प्रदेश, बिहार के नेता पुत्रों को जी भर के कोस देना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का प्रमाणपत्र हासिल करने जैसा था। 2019 के बाद सत्ता की तरफ से समझाया गया कि सिर्फ विपक्ष की संततियों को ही परिवारवाद के दायरे में रखा जाएगा। सत्ता पक्ष की संतति-संख्या को देश के जनसेवकों की श्रेणी में ही देखा जाएगा। सत्ता और परिवार का ऐसा संबंध है कि कांग्रेस से लेकर अन्य दलों के नेता सत्ताधारी दल की दत्तक संतान बनने को आतुर हैं। ममतामयी सत्ताधारी पार्टी हर किसी को अपना नाम देने को तैयार भी है। परिवारवाद पर हुए इस परिवर्तन पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।
‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं रवि पावक सुरसरि की नाईं’
तुलसीदास के कथन का भावार्थ है कि सारे सामाजिक नियम, परंपरा मानने की उम्मीद केवल कमजोर आदमी से ही की जाती है। ताकतवर किसी भी परंपरा को मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र होता है, और उस पर किसी का कोई जोर नहीं चलता है। समाज शक्तिशाली की हर बात में हां मिलाता है।
पिछले दिनों जिस तरह राम राज्य, संस्कार और आदर्श की बातें हो रही थीं, उससे हम उम्मीदजदा थे कि राजनीति में सब राजा राम के राज्य जैसा आदर्शवादी होगा। लेकिन, अब लग रहा है कि ‘रामचरितमानस’ की पूरी राम-कहानी से एक सूत्र वाक्य को उठा कर बाकी आदर्शों को वनवास भेज दिया गया है। रामचरितमानस से निकला वह सूत्र वाक्य है ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’।
2014 से लेकर 2019 तक राजनीति में परिवार को खलनायक की तरह पेश किया गया। परिवार को भ्रष्टाचार की जड़ बताया गया। सत्ता की कुर्सी पर बैठ रहे साधु-संतों को लेकर तर्क दिया गया कि जब परिवार ही नहीं तो भ्रष्टाचार किसके लिए करेंगे? 2014 के पहले विपक्ष के व्याकरण में परिवार के समानार्थी शब्द के रूप में भ्रष्टाचार स्थापित हो चुका था।
उस वक्त पूरे देश के सामने एक ही अपराधी दिख रही थीं-सोनिया गांधी। सोनिया गांधी का अपराध यह था कि अपने पति की हत्या के बाद पार्टी को संभालने के लिए राजनीति में आईं और लगातार दूसरा अपराध था अपने बेटे को राजनीति में आने से नहीं रोकना। भ्रष्टाचार विरोधी मोर्चा संभाले लोगों की परिवारवाद के खिलाफ सोनिया गांधी से जितनी क्रूर उम्मीदें थीं उसे देख कर लगता था कि राहुल गांधी के पैदा होते ही सोनिया गांधी को आम मां की तरह उनका लालन-पालन नहीं करना था।
गांधी परिवार का वंश होने की सजा में बस किसी कोने में उपेक्षित सा खड़ा कर देना था। राहुल को वंशवाद का प्रतीक ठहराने के लिए उनके पूर्वजों की शहादत को भी फीका कर दिया गया। राहुल गांधी का कसूर था कि नेहरू, इंदिरा, राजीव गांधी का डीएनए रखते हुए उन्होंने उस देश की राजनीति में आने का अपराध कर दिया जहां कोई कारोबारी अपने बेटे को अपने व्यापार की गद्दी नहीं सौंपता।
इस देश में सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक जितने वकील हैं उनके पिता, दादा, परदादा और महादादा का इस देश की वकालत से कोई संबंध नहीं है। आरोपों की राजनीति में एक परिवार इतना दागदार हुआ कि अपने बच्चे के लिए किसी खास स्कूल में दाखिले की सिफारिश करते लोग, अपने सगे-संबंधियों को फलानी जगह का अध्यक्ष बनाने की वकालत करते लोग, महज राहुल गांधी व उत्तर-प्रदेश, बिहार के नेता पुत्रों को परिवारवादी बता कर भ्रष्टाचार विरोधी डिप्लोमा कोर्स का प्रमाणपत्र पाया हुआ सा महसूस करने लगते थे। देश की सेवा का इतना आसान विकल्प हर कोई चुन लेना चाह रहा था।
2014 में आरोपों के सींखचे में जकड़े परिवार को लेकर चलते हैं 2019 में। अब पटकथा में थोड़ा परिवर्तन आया। हालात ऐसे बने कि परिवारवाद का नाम लेते ही भाजपा नेताओं की वंशबेल सामने आ जाती थी। कोई बेटा सांसद तो कोई बेटी विधायक। संसद में जब सत्ता पक्ष परिवारवाद के खिलाफ बोलता तो न चाहते हुए भी कैमरा विरासती संततियों की तरफ चला जाता था। इसकी काट खोजनी जरूरी थी और खोज ली गई।
अब परिवार और परिवारवाद में फर्क बताया गया। इस फर्क को जिन भी शब्दों और शब्दार्थ के साथ समझाया गया हो, सत्ता पक्ष से जारी उसका भावार्थ यही था कि सिर्फ विपक्ष की संततियों को ही परिवारवाद का चेहरा माना जाएगा। सत्ता पक्ष से जुड़ी संततियों को कर्मवीर का ही दर्जा दिया जाएगा कि करिअर के अनगिनत विकल्प होते हुए भी राजनीति को चुन कर देश और समाज पर अहसान किया। सत्ता पक्ष की संतति राजनीति नहीं देश और समाज सेवा के लिए ही आएगी।
जिस तरह सूरजमुखी सूर्य की तरफ होता है, उसी तरह परिवार की प्रकृति भी सत्तामुखी हो जाती है। जिनके पास सत्ता है उनके इर्दगिर्द परिजनों का जमावड़ा विपक्ष को हीनता की ऐसी स्थिति में ला देता है कि वह छोटे बच्चे की तरह आरोप लगा कर रो पड़ेगा कि मुझे तो कोई प्यार ही नहीं करता। बेचारे विपक्ष के रोज-रोज टूटते-बिखरते परिवार की तरफ देखिए।
शरद पवार का परिवार ही उनके साथ रहने को तैयार नहीं रहा क्योंकि अब वो सत्ता के लिए समरथ नहीं दिख रहे थे। लेकिन, अजित पवार को शरद पवार का भतीजा तभी तक कहा जाना चाहिए था जब तक वो राकांपा में थे। कांग्रेस का तो पूरा राजनीतिक परिवार भाजपा की दत्तक संतान बनने को तैयार है। एक आवाज गूंजती है, ‘जब राहुल गांधी तुम्हारा हृदय तोड़ दें, जांच एजंसियां समन भेज दें तो मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा’।
यह सुनते ही कांग्रेस नेताओं को भगवान राम का अपमान याद आता है, और ‘वे दम घुट रहा है, दम घुट रहा है’ कहते हुए भाजपा का पटका पहनने के लिए दौड़ते हैं। भाजपा अध्यक्ष के हाथों पहना पटका उनके लिए राजनीतिक आक्सीजन मास्क सरीखा होता है, और सत्ता के खेमे में पहुंचते ही उनकी सांस वापस आ जाती है।
सत्ता पक्ष जिस तरह परिवारवाद पर हमला करता है, उससे आम लोगों का सामान्य ज्ञान गड़बड़ होकर कह सकता है कि वह लखीमपुर वाले कांग्रेस के नेता होंगे तभी उन्हें टिकट मिल जाता है। वरना, सत्ताधारी पार्टी में तो इतना अनुशासन है कि कोई खुद के लिए टिकट मांगने से बेहतर संन्यास लेना पसंद करेगा। हालांकि आप भी इंटरनेट को कोस देंगे कि क्या गलत बताता है कि वे सत्ताधारी पार्टी में ही अपनी दबंग सत्ता रखते हैं।
भारत जैसे देश में सत्ता के परिवारवाद की बात करेंगे तो जाहिर सी बात है कि और भी पद हैं मंत्री, सांसद, विधायक के अलावा। आज आप भारत की किसी भी शक्तिशाली संस्था की तस्वीर पर अंगुली रखिए, उसकी कमान सत्ता पक्ष के नेता से जुड़े लोगों के हाथ में होगी। कहीं का कोई अध्यक्ष, कहीं का कोई कुलपति, उस पद के लिए उनकी उत्पत्ति सत्ताधारी के वरदहस्त से हुई होती है।
दिल्ली में उस वरिष्ठ चेहरे का टिकट काटा गया जो सादगी की राजनीति के प्रतीक थे। जो जनता को अपने परिवार की तरह देखते थे और जिनका अपना परिवार आम जनता की तरह दिखता था। उन्हें टिकट नहीं देने की और कई वजह रही होगी, जिसमें किसी भी तरह से दिल्ली की सातों सीटों पर जीत हासिल करने का लक्ष्य है।
इसी जिताऊ चेहरे वाले लक्ष्य के तहत जिसे टिकट दिया गया, वह नाम है बांसुरी स्वराज का। यह टिकट कार्यकर्ताओं की उस भावना को देखते हुए दिया गया है जो सुषमा स्वराज को आज आदर्श मानते हैं और बांसुरी स्वराज में स्वर्गीय स्वराज की छवि देखते हैं। बांसुरी स्वराज को कार्यकर्ता अपनी बेटी की तरह देखेंगे और उनकी जीत के लिए पूरी कोशिश करेंगे। अगर बांसुरी स्वराज एक काबिल युवा हैं तो क्या उनके टिकट को सिर्फ इसलिए खारिज कर देने की मांग होनी चाहिए क्योंकि वह स्वर्गीय सुषमा स्वराज की बेटी हैं?
आप बांसुरी स्वराज को लेकर दिल्ली के भाजपा कार्यकर्ताओं के स्नेह को देखिए। हर घर की संतान सबसे पहले अपने मां-बाप जैसा बनना चाहती है। बाद में उसकी पसंद बदल जाए यह दूसरी बात है, लेकिन कोई अपने अभिभावक की आभा से आगे नहीं बढ़ पाए और उनकी राह पर ही चलना चाहे तो फिर गलत क्या है?
पिछले दस सालों का हासिल यह है कि जनता के कठघरे में खड़ा किया गया ‘आरोपी परिवार’ अब भ्रष्टाचार मुक्त है। सत्ताधारियों ने कह दिया है कि अब हम हैं तो परिवार को भ्रष्टाचार का पर्याय नहीं माना जाएगा। जाहिर सी बात है कि उनके इस संदेश को सुना और गुना जाएगा। सत्ता पक्ष में सियासी संततियों का चेहरा बढ़ता जाएगा। क्योंकि ‘समरथ को नहीं दोष गुसार्इं’।