मकतब-ए-इश्क का दस्तूर निराला देखा उस को छुट्टी न मिले जिस को सबक याद रहे -मीर ताहिर अली रिजवी
पिछले चुनावों को देखें तो चुनावी मैदान में भी इसी तरह के इम्तहान से गुजरना पड़ता है। छोटा हो या बड़ा, हर चुनाव का एक सबक होता है। अगर राजनीतिक दल सबक को लेकर सतर्क रहता है तो फिर वह चुनावी क्षेत्रों में बारहमासा चौबीस गुणे सात काम करता है। इसी सबक को परखने के लिए विश्लेषक चुनावों को ‘सेमीफाइनल’ या ‘फाइनल’ का नाम देते हैं। इसमें अहम है ‘सेमीफाइनल’, यानी अंतिम चुनाव में उतरने से पहले की स्थिति। हारती हुई पार्टी किसी भी तरह के ‘सेमीफाइनल’ से इंकार करती है। लेकिन, चुनावी नतीजों का लंबा इतिहास बताता है कि विधानसभा और लोकसभा के मुद्दों की एक तारतम्यता होती है। अहम यह है कि दल चुनावी संदेश से सबक कैसे लेते हैं? चुनावी नतीजों के ‘सेमीफाइनल’ बनाम चुनावी संदेश का विश्लेषण प्रस्‍तुत करता बेबाक बोल।

‘अश्वत्थामा हत: इति नरो वा कुंजरो वा’ कूरुक्षेत्र के युद्ध में गुरु द्रोण को रोकने के लिए युधिष्ठिर ने ‘अमर’ अश्वत्थामा के मारे जाने का असत्य बोला। युधिष्ठिर ने अपना धर्म बचाने के लिए दबे स्वर में कहा कि वह नर नहीं हाथी है। युद्ध के मैदान में दुश्मन का मनोबल तोड़ने की कृष्ण की इस रणनीति को बाद के समय में ‘प्रोपगैंडा’ का नाम दिया गया।

मत-प्रचार (प्रोपगैंडा) ऐसा शब्द है जो किताबों में अपना रोचक इतिहास रखता है। इसका जन्म युद्ध के मैदानों से हुआ था जहां दुश्मन की सेना को नैतिक रूप से पराजित करने के लिए अफवाह का सहारा लिया जाता था। चुनाव ही चुनाव वाले भारत में ‘सेमीफाइनल’ शब्द इस ‘प्रोपगैंडा’ का सबसे बड़ा उदाहरण है। चुनावों के पिछले चरण में जब कांग्रेस लगातार हार रही थी तो उसके नेतागण विधानसभा चुनावों को ‘सेमीफाइनल’ मानना तथ्यात्मक रूप से गलत बता रहे थे। तब आंकड़ों से बताया जा रहा था कि किस तरह विधानसभा चुनावों में हार के बाद भी हालात बदले।

2024 के लोकसभा चुनाव के पहले अहम राज्यों में चुनावों के हालात को देख कर सत्ता पक्ष द्वारा चुनावी टिप्पणीकारों के पसंदीदा शब्द ‘सेमीफाइनल’ शब्द को नकारा जा रहा है। खास कर अब सत्ता पक्ष का ‘प्रोपगैंडा’ है कि विधानसभा और लोकसभा चुनावों के मुद्दे पूरी तरह अलग होते हैं। दावा है कि तीन दिसंबर को आने वाले नतीजे का कोई भी असर 2024 के लोकसभा चुनावों पर किसी भी तरह से नहीं पड़ने वाला है।

‘सेमीफाइनल’ शब्द को चुनावी विश्लेषण के शब्दकोश से हटाने की सिफारिश की वजहों पर गौर किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद वे अहम राज्य विधानसभा चुनावों के लिए मतदान कर चुके हैं जहां से ज्यादा सीटें हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना। राजस्थान, मध्य प्रदेश में कुछ भी हो सकता है जैसे कठिन हालात वाले आसार को छोड़ दें तो दो जगहों पर कांग्रेस की बढ़त बताई जा रही है। कर्नाटक के नतीजों के बाद तेलंगाना पर सबकी नजर है, जो भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए अहम है।

अगर अभी तक के सर्वेक्षण सही साबित होते हैं तो भाजपा शासित राज्यों की संख्या और कम हो सकती है। साथ ही महाराष्ट्र में जिस तरह के हालात हैं वहां, रोटी इतनी बार पलटी जा रही है कि किसी की भी थाली में अच्छी तरह से नहीं उतर रही है।अब चूंकि कांग्रेस जमीन से उठती हुई दिख रही है तो वह इसे ‘सेमीफाइनल’ के अलावा कुछ और नहीं मानना चाहती है। वहीं कांग्रेस के उठान के अनुपात में भाजपा अपनी ढलान को किसी भी तरह से ‘सेमीफाइनल’ नहीं मानना चाहती है।

पहले बात करें कांग्रेस की तो वह हमेशा ‘पंथ’ आधारित पार्टी रही थी। संगठन के अलावा अलग-अलग राज्यों से लेकर केंद्रीय चेहरे तक पार्टी की छवि व्यक्ति आधारित ही रही। सत्ता के मद में संगठन पर से पूरी तरह ध्यान हटा दिया गया। इसलिए उसके केंद्रीय चेहरे को ही ‘पप्पू’ साबित कर पूरी पार्टी को धराशायी कर देना आसान था। इसके साथ ही कांग्रेस के साथ भ्रष्टाचार भी नत्थी हो चुका था।

पांच-पांच साल वाले लोकतंत्र में दस साल तक भाजपा ने केंद्र की छतरी के तले ही राज्यों को रखा। उत्तर से दक्षिण तक एक ही चेहरा। एक चेहरे की सर्वमान्यता को दिखा कर बाकी चेहरों की मान्यता रद्द कर दी। राज्यों के निगम का चुनाव भी केंद्रीय चेहरों के नाम कर दिया गया। केंद्रीय शक्तियों द्वारा निगम चुनाव तक लड़ने के जज्बे की तारीफों का ऐसा पुल बांधा गया कि किसी तरह के पुल ढहने का भी चुनावी नतीजों पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ा। कहा गया कि भाजपा चुनाव लड़ना जानती है। एक चुनाव खत्म होते ही बिना आराम दूसरे चुनाव के लिए शुरू हो जाती है।

चाहे वह उत्तर प्रदेश में राजपूत पहचान वाले नायक हों या मध्य प्रदेश में चौहान, राजस्थान की महारानी, या दक्षिण के येदुरप्पा। हर जगह के चुनाव पर केंद्रीय निशान है। इस बीच कहा गया कि भाजपा ने संगठन के स्तर पर खुद को बहुत मजबूत किया। हालांकि, यह भी राजनीतिक रूप से एक विरोधाभासी तथ्य है। बिना स्थानीय चेहरों के मजबूत हुए अखिल भारतीय संगठन मजबूत नहीं हो सकता। स्थानीय चेहरों को दिल्ली से जुड़ा दोहरा इंजन भर करार दे कर राज्यों में संगठन की रेलगाड़ी को बेपटरी करना जैसा है।

पिछले दस सालों में उत्तर प्रदेश एकमात्र ऐसा राज्य रहा जिसमें भाजपा के एक लड़ाके चेहरे ने येन-केन प्रकारेण अपना अस्तित्व बचाए रखा। इसलिए कथित फाइनल में खारिज ‘सेमीफाइनल’ के नुकसान से भरपाई करने की जिम्मेदारी भी उसी चेहरे पर है। आज जब केंद्रीय सत्ता अपने दसवें साल में प्रवेश कर चुकी है तब राम मंदिर के दरवाजे दर्शन के लिए खुलने के लिए तैयार हैं।

राम मंदिर तो कांग्रेस से लेकर आम आदमी पार्टी सबका है, उससे ज्यादा देश की जनता का है। अब उस पर कोई विवाद नहीं है। मंदिर के रास्ते अब चुनाव की मुक्ति संभव नहीं है। मणिपुर अभी तक जल रहा है और कश्मीर की जनता विधानसभा चुनावों के इंतजार में है। सारे ‘साहसी’ फैसले अपने हिस्से का वोट वसूल चुके हैं और आगे अकेले चलने का साहस बटोरने का इशारा कर रहे हैं।

इसी साहस जुटाने का पहला कदम है ‘सेमीफाइनल’ को खारिज करना। यह स्थापित करना कि विधानसभा और लोकसभा चुनावों का कोई संबंध नहीं है। दोनों अलग-अलग मुद्दों पर लड़े जाते हैं। ‘सेमीफाइनल’ को खारिज करने वालों से पहला सवाल यह कि विधानसभा चुनावों को केंद्रीय चेहरों के भरोसे क्यों लड़ा गया अब तक? निगम के कूड़े-कचरे के निस्तारण वाली जगहों के चुनाव में जनता की अतीत के साथ अदावत क्यों करवाई जा रही थी? आधुनिक भारत के ग्राम पंचायत की समस्या के लिए मध्यकालीन भारत को क्यों जिम्मेदार ठहराया जा रहा था?

अब जब राज्यों में विपक्ष के चेहरे सरकार बना रहे हैं तो भाजपा की केंद्रीय पहचान वाली रणनीति को झटका लगना शुरू हो चुका है। लेकिन, अब इस मसले पर शायद देर हो चुकी है। चुनावी मैदान में स्थापित चेहरों को मिटाना जितना आसान होता है, नए चेहरे बनाना उतना ही मुश्किल। राज्यों के कद्दावर चेहरों को कमल के निशान भर में समेट देने की रणनीति का हासिल तो वक्त ही बताएगा।

भारत जैसे बड़े भूगोल वाले देश में स्थानीयता को खारिज नहीं किया जा सकता। दूर दक्खन में भाजपा स्थानीयता को खारिज करने का अंजाम भुगत चुकी है। अपने प्रवेशद्वार कर्नाटक को तो खो ही चुकी है तेलंगाना चुनाव में भी फिलहाल उसके लिए नाउम्मीदी ही बताई जा रही है। तेलंगाना जैसे राज्य जहां शुरू में केसीआर को ही विजेता माना जा रहा था, वहां भी कांग्रेस का मजबूत दिखना, चुनावी मैदान के विमर्श को बदल रहा है। क्या विधानसभा चुनावों में दक्षिण से दफा होने के बाद भाजपा लोकसभा चुनाव में सबको सफा कर पाएगी? ऐसी स्थिति को ‘सेमीफाइनल’ कह कर जहां कांग्रेस अपना मनोबल बढ़ा रही है, वहीं भाजपा कह रही कि हमारे यहां तो सिर्फ ‘फाइनल’ चलता है।

क्वार्टर फाइनल’ हो, ‘सेमीफाइनल’ हो या ‘फाइनल’। हर चुनाव का एक संदेश होता है। संदेश को ग्रहण करने वाला आगे की चुनौती को पार कर लेता है। 2018 में विधानसभा चुनावों के संदेशों को भाजपा ने ग्रहण किया था और उसके हिसाब से रणनीति बदली थी। देखना है कि कांग्रेस इस संदेश को कैसे लेती है? भाजपा की तरह सबक से सतर्क होती है या जमीन वापसी की खुशी में जीती हुई जमीन पर पकड़ ढीली कर लेती है। खास कर जब विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का बढ़ना ‘इंडिया’ के घटक दलों के लिए डरना हो सकता है। नतीजों के बाद यह भी अहम मुद्दा होगा। अभी तो संदेश का इंतजार।