मुद्दा बनना था पाकिस्तान जैसे देश की नापाक हरकतें तो मुद्दा बन गया, थरूर साहब की लिखी हुई किताब। ‘आपरेशन सिंदूर’ के बाद भारत सरकार ने विदेश में भारत का पक्ष रखने के लिए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का फैसला किया और अपनी पहली पसंद बनाया शशि थरूर को। इस फैसले के खिलाफ कांग्रेस की नाराजगी सामने आते ही सत्ता पक्ष थरूर को इस ग्रह से लेकर मंगल ग्रह तक का सबसे योग्य वक्ता व इंसान ठहराने में जुट गया। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में सिर्फ दो ही चेहरों के बयान सामने आ रहे हैं शशि थरूर और निशिकांत दुबे के। बात कोई भी कहे, कैसे भी कहे, उसकी पहली शर्त यह है कि क्या बात उस तक पहुंची जो योग्य है? यानी जो विमर्श को बनाने व ढहाने में मददगार हो सकता है। अभी तक ऐसा कोई धमाकेदार नाम सामने नहीं आया है और न ही ऐसा धमाकेदार तथ्य जो इन योग्य चेहरों की योग्यता बता सके। जहां तक अप्रवासी भारतीयों की बात है वे पहले से भारत के साथ और पाक के खिलाफ हैं। शशि थरूर की जी हुजूर वाली बदली विरोधाभासी छवि पर बेबाक बोल।
रदाता का पैसा…भारतीय राजनीति में जब भी किसी पक्ष को किसी खर्चे पर सवाल उठाते हुए उसे फिजूलखर्ची में डालना होता है तो यह शब्द ब्रह्मास्त्र की तरह इस्तेमाल होता है। आपरेशन सिंदूर के बाद भारत सरकार ने फैसला किया इस मुद्दे पर विदेशों में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का। यह प्रतिनिधिमंडल विदेशों में अपना काम कर रहा है। अभी तक के हाल पर सवाल है कि इस प्रतिनिधिमंडल का हासिल क्या है?
पहला सवाल यह है कि यात्रा पर रवाना होने से पहले प्रतिनिधिमंडल ने अपने काम-काज का क्या खाका तैयार किया था? क्या यहां से पूरी तैयारी के साथ गए थे कि वहां किन मजबूत हस्तियों से मिलना है, किन मजबूत मंचों पर अपनी बात उठानी है? सवाल उठ रहे हैं कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल किन लोगों से मिले और क्या मजबूत तर्क दिए। क्या आप अप्रवासी भारतीयों तक अपनी बात पहुंचाने गए थे, जैसा कि अभी तक दिख रहा है? जहां तक अप्रवासी भारतीयों की बात है तो वे ज्यादातर मुद्दों पर भारत सरकार के साथ चलने में यकीन रखते हैं।
हर अप्रवासी पहले से यह मान रहा है कि ‘आपरेशन सिंदूर’ भारत की बड़ी कामयाबी है
शायद ही कोई अप्रवासी भारतीय होगा जो पाकिस्तान की नापाक हरकतों से वाकिफ नहीं होगा और इस मुद्दे पर भारत सरकार के साथ नहीं होगा। अप्रवासी भारतीय विभिन्न मंचों से अपने मूल देश से जुड़े होते हैं और उनकी अपनी पूरी समझ बनी होती है। कम से कम पाकिस्तान की हरकतों और उस पर भारत की कार्रवाई को लेकर उन्हें अपने पाले में लाने के लिए इस तरह के खर्चीले अतिरिक्त श्रम की जरूरत नहीं थी। भारत की मिट्टी से जुड़ा हर अप्रवासी पहले से यह मान रहा है कि ‘आपरेशन सिंदूर’ भारत की बड़ी कामयाबी है जिसने दुनिया के सामने पाकिस्तान की छवि आतंकवादियों की पनाहगाह के रूप में रखी।
दूसरा बिंदु यह है कि सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से सिर्फ दो ही लोगों के नाम और उनके बयान सामने आ रहे हैं। पहला नाम है शशि थरूर का। शशि थरूर के नाम का चयन करते ही कांग्रेस केंद्र सरकार से नाराज हो गई थी। नाराज तो ममता बनर्जी भी हुई थीं। उन्हें यह पसंद नहीं आया कि केंद्र सरकार ने अपनी तरफ से ही युसूफ पठान के नाम का चयन कर लिया, लेकिन उन्होंने इस मुद्दे पर अपनी गरिमा को बरकरार रखा। उन्होंने यूसुफ पठान से ही कहलवाया कि वे अपने निजी व्यस्तताओं के कारण इस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा नहीं बन सकते हैं। विदेश के लिए थरूर के चयन के साथ ही इस मसले पर देश में अंदरूनी राजनीति तेज हो गई। पाकिस्तान पर हमले के बजाय कांग्रेस और भाजपा के नेता एक-दूसरे पर जुबानी हमले करने लगे। भाजपा के नेताओं ने कहना शुरू कर दिया कि थरूर कांग्रेस के वो नेता हैं जो सच बोलते हैं…।
थरूर की प्रशंसा में भाजपा नेताओं ने भरपूर कसीदे पढ़े
कांग्रेस में कुछ अच्छे लोग हैं लेकिन पार्टी इनकी कद्र नहीं करती…। पार्टी को लगता है कि थरूर को अहमियत देने से राहुल गांधी की अहमियत कम हो जाएगी…। थरूर की विद्वता को कांग्रेस बर्दाश्त नहीं कर पा रही है…। यहां तक कि असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने भी सवाल उठाया कि कांग्रेस ने शशि थरूर जैसे वाक्पटु नेता का नाम क्यों नहीं दिया सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के लिए। थरूर की प्रशंसा में भाजपा नेताओं ने जो कसीदे पढ़े क्या वह अपने अंजाम पर पहुंचा? क्या थरूर दुनिया के किसी ऐसे शक्तिशाली नेता से मिल पाए जो इस मुद्दे पर अहमियत रखता है? क्या थरूर अमेरिकी राष्ट्रपति से मिल पाए जिन्होंने भारत सरकार से पहले ही सोशल मीडिया पर भारत-पाक के बीच संघर्ष विराम का एलान कर दिया था?
जिन्होंने दावा कर दिया कि दोनों देश अमेरिका से कारोबार रुकने की धमकी के बाद शांति विराम के लिए राजी हुए। डोनाल्ड ट्रंप भारत-पाक के बीच संघर्ष विराम पर जो बार-बार बयान बदलते रहे क्या थरूर उनसे मिल कर उनके सामने कोई बयान दे पाए? राष्ट्रपति नहीं तो क्या थरूर अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस से ही मिल पाए जो पहलगाम पर आतंकवादी हमले के दौरान भारत में ही थे? चीन और तुर्किये के खिलाफ हम घरेलू मंचों पर जितना भी बोल लें, क्या इन बोलों का मिलान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हो पाया?
प्रतिनिधिमंडल के लक्षित देशों ने तो तुर्किये पर कुछ नहीं बोला लेकिन थरूर भारत के ही राज्य केरल पर सवाल उठा चुके थे कि उसे भूकंप के बाद तुर्किये की मदद नहीं करनी चाहिए थी। जाहिर सी बात है कि केरल से उन्हें जवाब मिल गया कि आप केंद्र की दी हुई मदद पर चुप क्यों हैं? आपके चुनिंदा स्मृति-लोप का राज क्या है? किसी देश के राष्ट्राध्यक्ष से मिलना तो दूर क्या थरूर ऐसा कोई मजबूत दस्तावेज दिखा कर विदेशी मीडिया को चौंका पाए कि पाकिस्तान की करतूतों पर वहां खबरनवीसी हो पाती। क्या प्रतिनिधिमंडल ऐसे दस्तावेजों से लैस था जो दुनिया की शक्तियों को हमारी तरफ झुका सकता था?
इन सवालों के जवाब मिलने में वक्त लग सकता है। फिलहाल इन सवालों का मकसद इस प्रतिनिधिमंडल की सफलता व असफलता पर बात करना नहीं है। हम बात उन दो चेहरों की कर रहे हैं जिन्हें वाक्पटु का खिताब दिया गया है। वे बोल क्या रहे हैं? शशि थरूर भारत में विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेता हैं और उन्होंने एक किताब लिखी जिसमें 2014 से 2018 तक की केंद्र सरकार के उन विरोधाभासों के बारे में बताया जो उस वक्त सरकार अपनी सबसे बड़ी कामयाबी की तरह प्रचारित कर रही थी। शशि थरूर की अकादमिक पहचान है और शशि थरूर ने भारत में औपनिवेशिक शासन के इतिहास पर भी किताब लिखी है।
शशि थरूर यह अच्छी तरह जानते हैं कि खाने-पीने की चीजों की तरह किताबों की कोई मियाद नहीं होती। किताब के लिखे शब्द शाश्वत होते हैं। शशि थरूर के पास बेहतर तर्क है कि फिलहाल यह वक्त राष्ट्र के लिए काम करने का है। मुश्किल यह है कि अब चर्चा में उनके राष्ट्र के लिए किए गए काम हैं ही नहीं। उनकी वजह से ही यह विरोधाभास वैश्विक मंचों पर भी दिख रहा है कि विपक्षी दल का नेता विदेश में कुछ और बोल रहा है, वहीं देश में उनकी पार्टी का आधिकारिक बयान कुछ और है।
शशि थरूर विदशों में जो बोल रहे हैं वहां का मीडिया उन चीजों को बहुत तवज्जो दे रहा हो इसकी तस्दीक करती चीजें सामने नहीं आई हैं। उलटा, उन्हें भारतीय मंचों के उठाए सवालों का जवाब देना पड़ रहा है जो उनके संदर्भ में यहां हो रहे हैं। यहां तक कि भारतीय मंचों के पास भी यह खबर नहीं है कि थरूर की अगुआई वाले प्रतिनिधिमंडल के पास कितने मजबूत दस्तावेज हैं बल्कि अब वे भी यही खबर बनाने में मशगूल हैं कि तब थरूर ने अपनी किताब में क्या कहा था, अब क्या कहा और उनके कहे पर कांग्रेस पार्टी ने क्या पलटवार किया है। अब बात करते हैं प्रतिनिधिमंडल के दूसरे चमकदार चेहरे निशिकांत दुबे की।
अंतरराष्ट्रीय मंचों से तो उनकी यात्रा के हासिल की खबर नहीं मिल पा रही है, लेकिन उनके ‘एक्स’ पर किए हालिया पोस्ट से अंदाजा लगा सकते हैं कि दुबे विदेश में भी वही कर रहे हैं जो देश में करते रहे हैं, कांग्रेस व उसके इतिहास पर हमला। हमें उम्मीद थी कि दुबे के पास तो ऐसा कुछ मजबूत दस्तावेज होगा जिसके जरिए वे यात्रा के अपने लक्षित देशों में पाकिस्तान को लेकर कोई बड़ा धमाका कर सकेंगे। अफसोस, वे विदेश की जमीन पर भी स्मृति ईरानी-द्वितीय बनने की कोशिश कर रहे हैं। ‘राहुल विरोध’ का अघोषित मंत्रालय अब उन्होंने संभाल लिया है। नेहरू-इंदिरा पर हमला कर विश्व मंच पर पाकिस्तान को कितना नुकसान पहुंच सकता है यह तो दुबे ही बता सकते हैं। अफसोस, उन्होंने विदेश में ज्यादतर वही बोला जो देश में बोलते हैं।
सर्वदलीय मंडल को लेकर अंतिम तर्क यही है कि अगर आप किसी मुद्दे पर कोई बात कर रहे हैं तो उसके सफल होने की पहली शर्त यह है कि उसे सही व्यक्ति तक पहुंचाएं, सही मंच तक पहुंचाएं। अगर आप ‘योग्य’ तक अपनी बात नहीं पहुंचा पाए तो आपकी ‘योग्यता’ पर सवाल उठेंगे ही।