Bebak Bol: मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक के इतिहास के निरंतर सफर में जनता ने प्रजा से नागरिक बनने की मंजिल तय की। राजे-रजवाड़ों के साम्राज्यवादी इतिहास को पीछे छोड़ लोकतांत्रिक व्यवस्था का निर्माण किया गया। आज लोकतांत्रिक व्यवस्था से बनी सरकारें तीन सौ साल से ज्यादा पीछे जाकर गड़े मुर्दे उखाड़ने की बात करती हैं तो उनका इरादा औरंगजेब की नाइंसाफियों को याद कराना भर नहीं होता है। उनके इरादे में उन नाइंसाफियों को भुला देना होता है जो वे जनता के साथ रोजी-रोटी का वादा पूरा नहीं करके करती हैं। स्वतंत्रता संग्राम के साथ जिस राष्ट्रवाद का उदय हुआ उसने जनता को लोकतांत्रिक व्यवस्था दी। अब उसी लोकतांत्रिक व्यवस्था से पीछे की ओर चलने कह कर राजे-रजवाड़ों की व्यवस्था की तरफ आकर्षित किया जा रहा है। राजनेता इतिहास का इंसाफ सड़क पर करने के लिए कोर्ट-कचहरी को भी खारिज करने की वकालत कर रहे हैं। सियासत के साथ सिनेमा भी इतिहास को अपने तरीके से भुना रहा है। गड़े मुर्दे उखाड़ कर भारत एक खोद की ओर बढ़ रही राजनीति पर बेबाक बोल।

गड़े मुर्दे उखाड़ना…
यह ऐसी कहावत है जो कहावतों की किसी भी किताब में शीर्ष दस पर मिल जाएगी। पहले तो अस्वीकरण कि हम अपने इस स्तंभ में हिंदी भाषा या व्याकरण पर बात नहीं करने जा रहे हैं। हम अपने स्तंभ के बुनियादी मिजाज राजनीति पर ही बात करेंगे। राजनीति, गड़े मुर्दे उखाड़ने की। किसी भी सभ्यता-संस्कृति में कब्र, समाधि या अंतिम संस्कार स्थल से छेड़खानी को अधर्म माना जाता है। इन दिनों लाई गई कथित धर्म बचाने की राजनीति शब्दश: गड़े मुर्दे उखारने पर आमादा है।

पिछले दिनों संपन्न हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में छत्रपति वीर शिवाजी मुख्य मुद्दा रहे। शिवाजी मराठी अस्मिता की पहचान हैं। चुनाव खत्म होने के बाद भी सरकार को वर्तमान में लौटने की कोई जल्दी नहीं दिख रही है। सत्ता और सिनेमा का तो सह-संबंध रहा ही है। राजनीतिक माहौल को देखते हुए बालीवुड ने फिल्म ‘छावा’ का निर्माण किया। ऐतिहासिक नायकों पर पहले भी फिल्में बनी हैं और फिल्म उद्योग ने इनसे काफी मुनाफा भी कमाया है। घातक स्थिति तब बनती है जब एक ही मुद्दे पर राजनीति और सिनेमा दोनों मुनाफा कमाना चाहे। सफलतम व्यावसायिक फिल्मों के तमगे की ओर बढ़ती ‘छावा’ के जरिए चुनाव बीतने के बाद भी नफरत की राजनीति को भुनाया जाने लगा।

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महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने फिल्म की लोकप्रियता को देख कर पहले ‘छावा’ को ऐतिहासिक न्याय का दर्जा दिया। उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने भी ‘छावा’ से इतिहास सीखने की सलाह दी। राजनीति के द्वारा एक फिल्म के प्रचार का पहला हास्यास्पद असर यह हुआ कि फिल्म में दिखाए हर दृश्य को सच मान कर मध्य प्रदेश में बुरहानपुर के पास लोग सोना खोदने निकल गए। उस वक्त इस खबर पर हंसते हुए अंदाजा लगाया जा सकता था कि इस फिल्म के जरिए आगे और कैसा माहौल बनाया जा सकता है। दुर्भाग्यपूर्ण रूप से यह आशंका सही साबित हुई। आम लोग मध्यकाल में हुए अन्याय का इंसाफ करने सड़क पर निकल पड़े हैं। औरंगजेब के पक्ष में किसी भी तरह की बात करने वाले लोगों से सरेआम माफी मंगवाई जाने लगी। इसके नतीजतन नागपुर जैसा प्रदेश सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हुआ।

नागपुर में सांप्रदायिक हिंसा के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने सारा मखमली मुलायम सा ठीकरा ‘छावा’ पर फोड़ दिया। फडणवीस ने कहा, ‘आज महाराष्ट्र में छावा फिल्म के जरिए छत्रपति संभा जी का सच्चा इतिहास सभी के सामने लाया गया। लेकिन उसके बाद राज्य में लोगों की भावनाएं भी भड़क उठी हैं और औरंगजेब के बारे में जो गुस्सा है वह भी बाहर आ रहा है। यह सभी चीजें अपनी जगह हैं, लेकिन महाराष्ट्र में कानून व्यवस्था बनाए रखना जरूरी है’। खजाना खोदने जाना, लोगों की भावनाएं भड़कना फिल्म की सफलता है या गड़े मुर्दे उखाड़ने वाली राजनीति की? कानून-व्यवस्था के खिलाफ जाना, संवैधानिक नियमों के खिलाफ जाना, सड़क पर इंसाफ करना क्या ऐसी प्रवृत्तियां भारत के इक्कीसवीं सदी के नागरिकों को मध्यकाल की तरफ नहीं धकेल रही हैं?

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महाराष्ट्र से प्रभावित होकर उत्तर प्रदेश में संगीत सोम औरंगजेब की निशानियों को जड़ से मिटाने की बात कह रहे हैं। संगीत सोम तर्क दे रहे हैं, ‘जब औरंगजेब ने काशी और मथुरा के मंदिरों को तोड़ा था तो क्या उसने किसी कोर्ट का सहारा लिया था? क्या उसके खिलाफ कोई मुकदमा चला था? अगर तब ऐसा नहीं हुआ तो अब हमसे क्यों कहा जाता है कि हर चीज कोर्ट के जरिए होगी?’। अभी न महाराष्ट्र में चुनाव है और न उत्तर प्रदेश में पर कोर्ट-कचहरी को खारिज करने की ललकार हो रही है। महाराष्ट्र से लेकर उत्तर प्रदेश तक हर जगह इतिहास से ललकार का रिश्ता बनाया जा रहा है।

आज हमारे सामने अहम सवाल यही है कि हमें इतिहास के साथ कैसा रिश्ता रखना है? आधुनिकता के साथ राष्ट्रवाद के उभार ने इतिहास को ‘भारत एक खोज’ जैसा दृष्टिकोण दिया जिसके बाद प्रजा से नागरिक बनने की यात्रा शुरू हुई। भारत की यह खोज राजे-रजवाड़ों या शासक वर्ग के नजरिए से नहीं हो रही थी। परिवर्तन की निरंतरता के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था का निर्माण नागरिकों की पहली मंजिल थी।

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अब भारत को फिर से खोजा जा रहा है। सवाल है कि इस नए भारत की खोज किस नजरिए से हो रही है? औपनिवेशिक शासन में भारत को साम्राज्यवाद के बरक्स खोजा जा रहा था। उन अंग्रेजों के खिलाफ भारत को खोजा जा रहा था जो अपनी सभ्यता और संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करते थे।

आज नए नजरिए के राष्ट्रवाद में हम उस साम्राज्यवाद को भूल रहे हैं जिसके खिलाफ हमने लंबी लड़ाई लड़ी। आज लोकतंत्र का दावा करने वाले अमेरिका तक में राष्ट्रवाद का आकर्षण साम्राज्यवाद की तरफ हो रहा है। राजे-रजवाड़ों की तरफ आकर्षित हो रहे हमारे देश का राष्ट्रवाद कौन सी दिशा लेगा? जो समाज साम्राज्यवाद की तरफ आकर्षित होगा वह समाज के वंचितों और शोषितों को ही अलग-थलग कर देगा। अब राजे-रजवाड़ों के नजरिए वाले राष्ट्रवाद में दुश्मन भी बदल जाएगा।

लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत सरकार बना कर सत्ता राजे-रजवाड़ों वाले राष्ट्रवाद से गठजोड़ कर रही है। इससे बने राजनीतिक माहौल ने जनता को बुरी तरह भ्रमित कर दिया है। जनता निरंतरता से निर्मित संस्कृति से कट रही है या उसे काट दिया जा रहा है। इतिहास की पहली शर्त निरंतरता है। इतिहास को कहीं पर अवरोधक लगा कर रोका नहीं जा सकता है। इतिहास का एक ही इस्तेमाल है, उससे सबक लेना। इतिहास की निशानियां मिटाई नहीं जा सकतीं, हां निशानी मिटाने की कोशिश करने वाले अपने लिए एक नकारात्मक निशानी छोड़ जाते हैं। मराठा शक्ति के उदय के बाद मुगल साम्राज्य अस्त होने की ओर था। दिल्ली तक अपनी ताकत का दखल देने वाले मराठों ने औरंगजेब की कब्र को नष्ट करने की नहीं सोची। वे अपने समय और काल के इतिहास से आगे बढ़ रहे थे न कि औरंगजेब की कब्र के पास ठहर गए थे।

इतिहास के वृत्त पर एक पूरा काल-खंड घूर्णन करता है। आधुनिकता के पहले सामंती, साम्राज्यवादी जुल्मो-सितम की कई कहानियां हैं। आप तीन सौ साल पहले के आक्रांता के खिलाफ आज आक्रमण करने निकलेंगे तो सामने कोई ‘ठाकुर का कुआं’ का हिसाब लेने भी बैठा होगा। एक जुल्म का बदला लेने के लिए निकली कौम इतिहास में किसी खास कौम पर जुल्म ढाने की आरोपी निकल जाएगी। इतिहास के साथ पीछे चलने का रिश्ता हो ही नहीं सकता। नागरिक को प्रजा वाले समय में लौटाने की यह कवायद लोकतंत्र के साथ नाइंसाफी है।

औरंगजेब की निशानी मिटाने निकली जनता कुछ देर के लिए भूल सकती है कि थोक महंगाई दर पिछले साल के 0.2 फीसद के मुकाबिल 2.38 फीसद हो गई है। जिस देश की अस्सी करोड़ जनता अपने निर्वहन के लिए सरकार के दिए मुफ्त अनाज पर निर्भर है उसे तीन सौ साल पीछे जाकर जंग लड़ने के लिए कहा जा रहा है।

आज औरंगजेब को औरंगिया कहा जा रहा है तो यह नाम बदलने और बिगाड़ने की रणनीति का हिस्सा है। यह भी मालूम है कि जब आप औरंगजेब की कब्र खोदेंगे तो उसके शारीरिक अवशेष का एक ही हिस्सा निकालेंगे जो उसके मंदिरों पर अत्याचार का प्रतीक होगा। बाकी उस समय के हिंदू शासकों के साथ उसके कैसे राजनीतिक समीकरण थे इन सब पर मिट्टी पड़ी रहने देंगे।
आज नेता औरंगजेब के लिए कोर्ट-कचहरी को खारिज करने की बात कर रहे हैं कल जनता के बुनियादी अधिकारों को खारिज कर खुद भी राजाओं की तरह ‘न्याय’ करना पसंद करने लगेंगे। गड़े मुुर्दों को उखाड़ने की कोशिश करने के बाद सिर्फ कंकाल हाथ लगता है। इतिहास का कंकाल हमारे लोकतंत्र का जीवंत शरीर न छीन ले।