Maha Kumbh 2025: मन चंगा तो कठौती में गंगा…। लोक की आस्था ऐसी रही है कि वह गंगा से बहुत दूर होने पर किसी भी जलकुंड में मातृ नदी की आस्था बसा लेता है। आज के छवि प्रबंधन वाले समय में सत्ता से लेकर मीडिया ने ऐसा माहौल रचा कि दूर-दराज में बैठे लोक को लगा कि संगम में डुबकी लगाए बिना जीवन व्यर्थ है। संगम में स्नान के राजनीतिक इस्तेमाल ने लोक आस्था के इस गढ़ को ‘वीआइपी अखाड़ा’ बना दिया। सरकार और समर्थक मीडिया के प्रचार से वशीभूत जब देश के कोने-कोने से आम लोग पहुंच कर भगदड़ व मौत का शिकार हुए तो मौनी अमावस्या पर अमृत स्नान का महिमामंडन करने वाला मीडिया मौन हो गया। कोई भी जीवंत सभ्यता मौत के बाद जिंदगी को कुछ देर के लिए रोक देती है, शोक करती है। गंगा तीरे शासन व प्रशासन की आंखों में इतनी नमी नहीं थी कि हादसे के बाद तेजी से मृतकों और घायलों की पहचान जारी कर दे। मातम न मनाना पड़े इसलिए मृतकों की संख्या और पहचान पर सत्ता और मीडिया का देर तक पहरा बना रहा। आस्था के गढ़ में विशिष्टों द्वारा खारिज लोक पर बेबाक बोल।
Bebak bol on Mahakumbh: आज इतने करोड़ लोग पहुंचे…आज इतने करोड़ लोगों ने स्नान कर लिया। गणितज्ञ आर्यभट्ट से लेकर रामानुजन तक इस कमाल के अंकगणित पर चौंक गए होते। वे आज के एंकरों की तरह ही उनसे आंखें फाड़ कर, हाथों को नृत्यगत मुद्रा में लाकर पूछते कि कैसे गिन लेते हैं आप इतने लोग? कैसे काम करता है आपका यह महान संगणक?
कुंभ में पुलिस के एक अधिकारी कैमरे के सामने बोल रहे थे कि मैं आपको आधिकारिक आंकड़े नहीं दे पाऊंगा…। मरने वालों और घायलों की आधिकारिक संख्या बताने से अधिकारी साफ-साफ इनकार कर रहे थे। लेकिन मीडिया रोज कुंभ पहुंचने वालों के करोड़ के आंकड़े सटीक आधिकारिक अवतार में जारी कर रहा था। शायद उत्तर प्रदेश का प्रशासन इन चैनलों का दर्शक नहीं है, वरना वह भी इनसे गिनती सीख लेता।
आंकड़े किसी शासन और प्रशासन का इकबाल होते हैं
जनसंख्या से लेकर राशन लेने वालों की संख्या से लेकर कुंभ में आए श्रद्धालु तक के आंकड़े हम सुनते हैं। आंकड़े किसी शासन और प्रशासन का इकबाल होते हैं। महाकुंभ की व्यवस्था पर दावा किया गया कि यह दुनिया का सबसे बड़ा जुटान है जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर की व्यवस्था की गई है। ऐसी किसी भी बड़ी व्यवस्था का पहला चरण होता है मदद पहुंचाने वाले तंत्र तक पहुंचने वाले फोन नंबर जारी करना।
जहां भगदड़ मच गई हो, लोगों की मौत हो गई हो, सरकार का सबसे पहला काम होता है घायलों और मृतकों की पहचान जारी करना। प्रशासन को देर तक पता नहीं चला कि श्रद्धालुओं की मौत हुई है।
मीडिया मौत को अफवाह और वीआईपी चेहरों को सच बताता रहा
आपात हालात में समय की कीमत सबको पता है। सबसे बड़ी बात है, जो लोग लापता हो गए उनके परिजन इतने घंटों तक क्या करें? जाहिर सी बात है कि एक आदमी की खोज में दस लोग बदहवास संगम स्थल से लेकर अस्पताल और शवगृह तक की दौड़ लगाते रहेंगे। मृतक के साथ उनके परिजन भी उतनी देर तक मरते रहेंगे कि आखिर हुआ क्या? अब के पहले जो मीडिया ऐसे हादसों के बाद अस्पताल और शवगृह के पास तैनात रहता था उसकी तैनाती यह देखने और दिखाने के लिए कर दी गई कि मौत तो अफवाह है और चलता हुआ, वीआइपी चेहरों से चमकता हुआ संगम किनारा एकमात्र सच।
किसी मनुष्य की मृत्यु का अस्वीकार उसकी बुनियादी गरिमा का हनन है, उसके परिजनों के साथ अत्याचार है। कथित कमजोर समूह और यूट्यूबरों की रपटों ने ही हालात को सामने रखा। जो जिंदा हैं उनके परिजन इस आशंका के साथ भटक रहे थे कि लाश न देखनी पड़े। जिनकी सांसें टूट चुकी थीं उनके परिजन इस उम्मीद के साथ भटक रहे थे कि मेले में वो अचानक से आकर हाथ पकड़ लेंगे कि मुझे ही खोज रहे थे न। बिलखते आम लोगों के लिए सरकार जल्द से जल्द आंकड़ा उपलब्ध नहीं करवा पाती है तो इसका मतलब यही है कि वह अपनी कथित चमकती व्यवस्था पर मौत का मातम पसरने नहीं देना चाहती।
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दुनिया की कोई भी सभ्यता मौत के बाद दो क्षण रुकती है, उसकी आंखें गीली होती हैं। चाहे कितना भी बड़ा और भव्य आयोजन हो अगर एक भी मृत्यु पर आप रुके नहीं, थमे नहीं तो आपकी आस्था एक निर्जीव देह में वास करती है।
तुष्टीकरण एक राजनीतिक शब्द है इसलिए इसका शब्दार्थ राजनीति के साथ बदलता रहता है। महाकुंभ भारतीय लोक की आस्था का प्रतीक है। यह लोक का, लोक के लिए और लोक द्वारा संचालित होता रहा है। प्रशासन का काम लोक के लिए सुविधाएं और सुरक्षा उपलब्ध करवाना भर है, उसका श्रेय लेना नहीं। आस्था के इस महापर्व के विशिष्ट अतिथि तो वे लोग होने चाहिए जिनकी पहचान उनकी आस्था और धार्मिकता है। जो घर से बिना चप्पल-जूते पहने निकलते हंै गंगा स्नान के लिए। जो मीलों पैदल चलते हैं। गंगा तट पर कष्टकारी स्थिति में कल्पवास में रहते हैं। दुनिया के नक्शे में भारत आस्था के देश के रूप में इस लोक की बदौलत जाना जाता है।
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अगर इस लोक की मौत पर भी कुछ देर के लिए मातम के लिए नहीं रुकते हैं तो अब राजनीतिक शब्दावलियों के शब्दकोश में तुष्टीकरण की परिभाषा में आप हैं। आपकी अयोध्या से लेकर महाकुंभ तक की धार्मिक राजनीति इसमें आती है। पहले अयोध्या में आपने यही रणनीति अपनाई। एक धार्मिक आयोजन का राजनीतिक श्रेय लेना चाहा। आपके धार्मिक राजनीतिक अतिथि तो चुनिंदा थे लेकिन आपके अति प्रचार-प्रसार के कारण पूरा भावुक लोक चल पड़ा अयोध्या की ओर। वहां भी अपील जारी करनी पड़ी कि सब एक साथ अयोध्या न पहुंचें। महाकुंभ का सरकार ने अति प्रचार किया ही लेकिन सरकार समर्थक सभी मंचों ने ऐसा विमर्श खड़ा कर दिया कि अगर आपने इस महाकुंभ में संगम में डुबकी नहीं ली तो फिर आपका जीवन व्यर्थ है, आप हिंदुत्व के लिए खतरा हैं।
इसका नतीजा यह निकला कि आस्था के तट पर ‘वीआइपी अखाड़ा’ बन गया। सरकार के अगुआ के साथ मंत्रिमंडल कैमरे के सामने डुबकी लगा कर विपक्ष को चुनौती देने लगा कि हमने तो डुबकी लगा ली तुम कब लगाओगे। संगम तट पर डुबकी लगाना सरकार समर्थक दिखने के लिए भी जरूरी लगने लगा। देश-विदेश के कोने-कोने से अति विशिष्टों की फरमाइश पहुंच गई ‘वीआइपी स्नान’ के लिए। मीडिया की रुचि यह दिखाने में रह गई कि कौन श्रद्धा के कारण कैमरों के सामने खुल कर डुबकी लगा रहा है और कौन रात के समय छुप कर। इसके साथ ही मीडिया का खड़ा किया अति जरूरी सवाल…विपक्ष के नेता कब आएंगे डुबकी लगाने? क्या उनका वोट बैंक डूब जाएगा इसलिए डुबकी से बच रहे? आस्था के महाकुंभ के बहाने मीडिया सरकारी घाट पर डुबकी लगा-लगा कर दिखाने लगा कि कैमरों के आगे डुबकी लगाए बिना विपक्ष का डूबना तो तय है।
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छवि प्रबंधन युग से पहले कुंभ से तस्वीरें आती थीं साधुओं के बाद आम जन के स्नान की। साधुओं और आम लोगों की तस्वीर कुंभ को आस्था का गढ़ बनाती थी। इस बार हर ‘वीआइपी’ को अलग कोण से डुबकी की अपनी तस्वीर चाहिए थी और उसे सोशल मीडिया पर जारी करना अनिवार्य शर्त थी। बालीवुड से लेकर हालीवुड तक के सितारों के स्नान की धूम मच गई।
महाकुंभ की चमक इस बात से नहीं रही कि देश के किसी ग्रामीण इलाके से भीड़ भरी ट्रेन में चढ़ कर और मीलों पैदल चल कर कोई श्रद्धालु पहुंचा है। वह मीडिया के कैमरे के फ्रेम से बाहर है और उसे कैमरों की फिक्र भी नहीं है। आपकी धार्मिक तुष्टीकरण का नतीजा था कि इस बार महाकुंभ में अति विशिष्ट लोग ही प्रासंगिक रह गए।
जिन मीडियाकर्मियों की जिम्मेदारी थी व्यवस्थागत कमजोरी सामने लाने की, वे इस बात से खुश थे कि उन्होंने ‘वीआइपी अखाड़े’ से संगम में डुबकी लगाई। अभी-अभी हुई मौतों के आंकड़े तो ये सामने नहीं ला पाए लेकिन यह जरूर गिन लिया कि इससे पहले कुंभ में कितने हादसे हुए और कितनी मौतें हुईं। इन सब में जवाहरलाल नेहरू को तो शामिल होना ही था। वीआइपी पास दिखा, वीआइपी गलियारे से गुजरते पत्रकारों और एंकरों के चेहरों पर भी साफ-साफ फिक्र थी कि श्रद्धालुओं की मौत पर कोई बात न हो। जुगाड़ से हासिल ‘वीआइपी पास’ पर मौत का बिगाड़ न हो जाए। मीडिया ने सिद्ध कर दिया कि जो पल-पल का गवाह होने का दावा भरते हैं वे असल में गूंगे, अंधे और बहरे हैं। ये हर सवाल और शोक को उत्सव की चारदीवारी के बाहर रोके रखने के लिए तैनात पहरेदार हैं।
कोई भी आस्था सरकारी और विशिष्ट नहीं हो सकती। सरकार आस्था व श्रद्धा का श्रेय तो ले लेना चाहती है लेकिन आम श्रद्धालु की मौत पर मौन हो जाती है। सत्य को छुपाने की फितरत हर सत्ता की होती है। दुखद यह है कि सत्ता की लापरवाही के खिलाफ मौन रहने लगा मीडया इतनी उम्मीद भी नहीं रहने देगा कि मृत्यु पर शोक की आस्था बरकरार रखी जाए।