मेरी हस्ती से हर शख्स बेजार क्यों है
हर हाथ में मेरे लिए तलवार क्यों है
मैं तो खुद ही तैयार हूं महफिल से विदा होने को
फिर यह रोज-रोज की तकरार क्यों है।
यह सवाल जनता की तरफ से है जो जनतंत्र की बुनियादी शर्त है। पर संसद का सीधा प्रसारण बता रहा है कि जनता खारिज है। नागरिकता संशोधन बिल को तो पास होना ही था लेकिन नागरिकों को तब ही फेल बता दिया गया जब देश के अर्थशास्त्र की अगुआ प्याज की महंगाई के सवाल पर कहती हैं कि मैं वैसे परिवार से आती हूं जहां प्याज-लहसुन ज्यादा नहीं खाया जाता है।
अब महंगाई तो तब से है जब से बाजार और खरीदार हुए। महंगाई तब से है जब से राजा और प्रजा हुए। महंगाई अब भी है जब हम खुद को लोकतंत्र का पहरुआ कहते हैं। लेकिन आज जिस तरह से लोकतंत्र के मंदिर (आधुनिक बोध के हिसाब से संसद के लिए मंदिर शब्द का इस्तेमाल कतई नहीं करना चाहिए) में कमजोरों के प्रति अहंकार की भाव-भंगिमा है, वह जरूर नया है। संसद में वित्त मंत्री का उच्चारण और भाव-भंगिमा उन लोगों पर लानत भेज रहा था जो लहसुन-प्याज खाते हैं। जैसे लहसुन-प्याज न खाने वाले कितनी उच्च कोटि के हो गए और खाने वाले एकदम अधम। वित्त मंत्री का अहंकार बताता है कि संसद में बैठे लोगों और जनता के बीच दूरी कितनी बढ़ गई है। कांग्रेस के ‘संभ्रांत’ नेता शशि थरूर ने जब हवाई जहाज की सामान्य श्रेणी को मवेशी वर्ग (कैटल क्लास) कहा था तो भी हंगामा मचा था। मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद जब बार-बार कपड़े बदलने के लिए तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज सिंह पाटील पर सवाल उठाया गया तो उन्हें अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। अब तो दिखावे के नाम पर भी ‘लोकतांत्रिक दिखावा’ बंद कर दिया गया है।
मंदी का कारण यह नई पीढ़ी है जो गाड़ियां खरीदने के बजाए ओला और उबर से चलती है। सिनेमा हॉल में टिकट बिक रहे हैं, फिल्में सौ करोड़ का कारोबार कर रही हैं तो मंदी कहां है। अगर ऑटोमोबाइल क्षेत्र में मंदी है तो फिर सड़कों पर इतना जाम क्यों लग रहा है। भारत में अभी तक ऐसा अध्ययन नहीं हुआ है जिससे पता चले कि प्रदूषण के कारण मौतें हो रही हैं। ऐसे बयान देते वक्त माननीय सांसदों की देह से जो अहंकार फूटता दिखता है, उससे यही लगता है कि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण नहीं होता तो कुछ भ्रम बचा रहता, नागरिकता के प्रमाणपत्र पर गर्व तो महसूस किया जा सकता था। हम पूरी कोशिश कर रहे हैं, जल्द राहत मिलेगी, यह विपक्ष की साजिश है, अंतरराष्टÑीय कीमतें बढ़ रही हैं जैसी दिलासा देनेवाली भाषा की भी अब जरूरत महसूस नहीं की जा रही। सारी पर्देदारी खत्म है। हमारा करने का मन है इसलिए ऐसा किया, हम यही करने के लिए आए हैं इसलिए ऐसा किया। रामराज्य में भी अपराध शून्य नहीं हो सकता। सरकार सभी को नौकरियां नहीं दे सकती है। लोग बच्चे पैदा कर सरकार के भरोसे छोड़ देते हैं। अगस्त में बच्चे मरते ही हैं जैसे वाक्य बोल कर नेता उसे संदर्भों सहित सही साबित करने में जुट जाते हैं और विपक्ष वैसी जिंदा कौम नहीं रह गई है कि पांच साल के पहले कुछ सोचे भी।
जनता तो अब स्मार्टफोन में तब्दील हो रही है, जहां नागरिकता बोध का कोई अनुप्रयोग (एप्लीकेशन) ही नहीं। इतिहास किताबों से निकल कर वाट्सऐप के कारखाने से संपादित होकर अग्रेषित है। सत्ता की क्रूरता मीम है और जनता की जंग चुटकुला। एक वर्ग को नि:शुल्क शिक्षा के लिए हड़ताल करते जेएनयू के विद्यार्थी दुश्मन लगते हैं और वह अपने आयकर का हिसाब मांगने लगता है। वह अब किसी भी सरकार से सवाल नहीं करता। सत्ता के लिए इससे सुखद स्थिति क्या हो कि जनता ही जनता से लड़े और वही एक-दूसरे से जवाब मांगे।
उदारीकरण की अर्थव्यवस्था की नाकामी का कोई हल नहीं दिख रहा था तो दुनिया भर में इसका ठीकरा लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही फोड़ा गया। धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता शब्दों को खारिज किया गया। आधार संख्या को बुनियादी जरूरतों के वास्ते अनिवार्य करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान महाधिवक्ता दलील देते हैं कि नागरिकों के शरीर पर राज्य का अधिकार होता है। लोकतंत्र सत्ता के कर्तव्य और जनता के अधिकारों के लिए बनाया गया लेकिन अब इसे उलटा अर्थ दिया जा रहा है। अब सत्ता के पास अधिकार और अहंकार है और जनता के पास सिर्फ कर्तव्य।
सत्ता के अहंकार को दूर करने के लिए फिलहाल तो दूर-दूर भी विकल्प नहीं दिख रहा है। जोड़-तोड़ की बात छोड़ दें तो कर्नाटक के उपचुनाव में वे भी भाजपा सांसद चुन कर आ गए जो दलबदल कानून के तहत सदन से बेदखल थे। जद (सेकु) और कांग्रेस को नकारते हुए जनता ने फिर उन्हें सदन में पहुंचा दिया है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के वक्त जो राजनीतिक विश्लेषण हुए थे उपचुनावों के बाद वे सिर्फ बगलें ही झांक सकते हैं। जब राजनीतिक टिप्पणियों की उम्र इतनी छोटी हो जाए, सत्ता और जनता विपरीत व्यवहार करे तो फिलहाल थोड़ी देर रुक कर सोचने-समझने की कोशिश करनी चाहिए।
सत्ता और जनता दोनों संक्रमणकाल से गुजर रहे हैं। राममनोहर लोहिया की मशहूर उक्ति है कि अगर सड़कें खामोश हो जाएं तो संसद आवारा हो जाएगी। लेकिन अभी तो सड़क पर जनता है, पुलिस की पानी की बौछार और हिरासत में लेने का दौर है। सड़क पर खड़ी इस जनता का संसद तक असर होगा? मौजूदा सरकार में जब वरिष्ठ मंत्रियों और सलाहकारों की सूची देखें तो इनमें से ज्यादातर चेहरों का करिश्मा आपातकाल के दौरान उभरा था। 1975 के विश्वविद्यालय के शिक्षक और छात्र कांग्रेस के खिलाफ विकल्प बनकर संसद पहुंचे और वही लोग आज सड़क पर बैठे शिक्षकों, छात्रों और कर्मचारियों को अलोकतांत्रिक बता रहे। सूनी सड़क से आवारा संसद की आशंका जताने वाले के कई शिष्य आज नागरिकता संशोधन बिल के पक्ष में खड़े हैं।
देश महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती मना चुका है और विभाजन के इतिहास के पन्ने अपनी-अपनी सुविधानुसार और अपने-अपने फुटनोट के साथ सामने लाए जा रहे हैं। विभाजन के इतिहास में दर्ज है महात्मा गांधी और नोआखली। गांधी नोआखली में अकेले घूम रहे थे क्योंकि एक बड़ी कौम को मरने के लिए अकेला छोड़ दिया गया था। आजादी के बाद से न जाने कितने नोआखली बने लेकिन वहां जनता की सुरक्षा के लिए अकेले घूमने वाले गांधी नहीं मिले।
नोआखली की न जाने कितनी प्रतिकृति (क्लोन) तैयार हुई पर गांधी जो गए तो फिर किसी तरह नहीं बने। आज गांधी होते तो किधर जाते? नागरिकता बिल के विरोध में जल रहे असम की तरफ या दिल्ली में अभावों की गठरी के साथ मजनू का टीला पर जश्न मनाते पाकिस्तान से आए उस हिंदू शरणार्थी की तरफ जिसने जन्म ली नवजात का नाम नागरिकता रखा है। देश कागज पर खींचा आसान नक्शा नहीं होता बल्कि मजनू का टीला से लेकर असम तक की जटिलता होता है। इस जटिलता का हमारे देश में ही क्या पूरी दुनिया में गांधी के अलावा कोई हल नहीं है।
संसद, सड़क और जनता के रिश्ते में एक बार फिर से खारिज नागरिक ही है। बस इस नकारनामे पर दस्तखत करने वालों की कलम की स्याही बदल गई है। कागज और कलम के रिश्ते में स्याही का रंग आगे क्या रूप लेता है, उस पर आज इतनी जल्दी बोल कर कल खारिज होने का जोखिम कैसे लें।