जब भारत अपनी आजादी के 75वें साल में प्रवेश कर रहा है तो केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली सरकार है। संघ के कार्यकर्ताओं की मेहनत से बनी इस सरकार ने अपना वह राजनीतिक लक्ष्य हासिल कर लिया है जिसका सपना एक सदी पहले देखा गया था। यह भी सच है कि अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नई राह बनानी होगी। पीछे वाला या तो खर्च हो चुका है या उसका निदान किया जा चुका है। संघ की केंद्रीय टीम में दत्तात्रेय होसबाले जैसे व्यक्ति को प्रमुख जगह मिली है जो नई सोच के साथ प्रयोगवादी भी दिखते हैं। वे जेएनयू परिसर को भी अपने तरीके से बचाने की बात करते दिखते हैं, हर मंच पर संवाद में विश्वास करते हैं। आगे का दौर देश के साथ-साथ सत्ता और संगठन के लिए भी चुनौतियों भरा होने वाला है। इसके लिए संघ को एक ऐसा वैचारिक स्रोत लाना होगा जो आगे के समय का उभार हो। उससे संवाद करता हो। दत्तात्रेय होसबाले जैसे उदारवादी चेहरे की संघ में बढ़ी अहमियत पर बेबाक बोल

‘संघ को जानना है तो संघ के पास आना होगा’। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं से यह वाक्य प्राय: सुना जा सकता है। भारत की आजादी के 75वें साल में प्रवेश के साथ आरएसएस ने अपने शीर्ष समूह में उस व्यक्ति को रखा है जिनकी छवि लोक सुलभ की है। दत्तात्रेय होसबाले का संघ सरकार्यवाह चुना जाना उस सांस्कृतिक संगठन के लिए अहम है जिसने अपनी एक सदी की मेहनत से भारत की राजनीति का इतिहास बदल दिया। विचारधारा पर आधारित संगठन अगर दत्तात्रेय को अपना नेतृत्वकारी चेहरा बना रहा है तो आज उसके मायने हैं।

दत्तात्रेय की पहचान बनी थी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता के रूप में। अभाविप का मतलब है जनमोर्चा। संघ के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि विद्यार्थी शाखा से कोई इस पद तक पहुंचा है। दत्तात्रेय के साथ जनमोर्चा के चेहरे को स्वीकार्यता मिली है। उस चेहरे को स्वीकार किया गया है जो आम और खास सब के बीच है। जब संघ अपनी स्थापना की सौवीं वर्षगांठ की ओर अग्रसर है तो उसमें बदलाव की इस स्वीकार्यता की वजह है। संघ की सौ साला मेहनत का सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक परिणाम हासिल हो चुका है। पिछले सात सालों में संघ विचारकों और कार्यकर्ताओं की मदद से भाजपा की अगुआई वाली राजग सरकार ने तीन तलाक से लेकर अनुच्छेद 370 जैसे मजबूत राजनीतिक फैसले किए और उसकी स्वीकार्यता भी स्थापित की।

तीन तलाक पहला ऐसा मुद्दा था जिसके जरिए भाजपा को मुसलिम महिलाओं के साथ देश के मध्यम और उच्च तबके का समर्थन मिला। आज सारे राजनीतिक विरोधियों के अगर-मगर एक तरफ हैं और भाजपा के खाते में इस कुप्रथा के खात्मे का तमगा एक तरफ है। यह संघ के कार्यकर्ताओं की मेहनत है कि भाजपा अपने राजनीतिक हासिल को चक्रवृद्धि ब्याज के खाते में डाल कर उस पर उपजी बहस को शून्य खाते में तब्दील कराने में सफल हो जाती है।

इन सफलताओं के साथ दत्तात्रेय जैसे उदारवादी चेहरों को आगे लाने की वजह वे बड़े विरोधाभास हैं जिनसे संघ और भाजपा सरकार को आगे जूझना है। कश्मीर और राम मंदिर जैसे हिंदुत्ववादी विचारधारा के एजंडे को पूरा करने के बाद वे तमाम आर्थिक सवाल हैं जो उसके सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्र में रोड़ा अटका सकते हैं। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि नवउदारवादी आर्थिक नीति के बढ़ाव से मजदूर और किसानों से जुड़े संघ के सहयोगी संगठनों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। खासकर स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों के वजूद को बचाना मुश्किल है। जाहिर है कि अब इन्हें उस रूप में नहीं रखा जा सकता है जिस रूप में इनकी स्थापना हुई थी। लेकिन यह बदलाव किस तरह और कैसे लाना है इसके लिए एक ऐसे चेहरे की जरूरत है जो नए और पुराने के बीच की पुलिया बने।

आर्थिक नीतियों का विरोधाभास बढ़ना ही है और 2024 के आम चुनाव में यह सबसे बड़ी चुनौती बनने वाली है। इसी के साथ 2025 में संघ अपने शताब्दी समारोह के गौरवमयी क्षण का भी साक्षी बनेगा। इन दो से तीन सालों के पहले अभी ही किसान आंदोलन से लेकर विश्वविद्यालयों के अंदर से जनता की ऐसी प्रतिक्रिया उभर कर सामने आ रही है जो हिंदुत्ववादी एजंडे के साथ मेल नहीं खाती है। अशोका विश्वविद्यालय से लेकर अन्य उच्च प्रबंधन संस्थानों से उभरे शैक्षणिक असंतोष को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जब संघ नए भारत के साथ संवाद करने में जुटा है तो उसके पुराने चेहरे का महिलाओं की फटी जींस जैसा बयान दे देना उसे युवा वर्ग में अलोकप्रिय बना देता है। आर्थिक नीतियों से लेकर अशोका विश्वविद्यालय या फटी जींस जैसे अंतर्विरोधों का अंत करने के लिए ही दत्तात्रेय जैसे चेहरे को चुना गया है जो भारत के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन में जड़ता के खिलाफ संदेश देने के लिए आगे आते रहे हैं।

संघ एक विचारधारा पर आधारित संगठन है और वह बखूबी जानता है कि किसी भूगोल में उसी की संस्कृति होती है जिसकी राजनीति होती है। लेकिन आज के समय के भूगोल को सांस्कृतिक व आर्थिक रूप से किसी सरहद में नहीं बांटा जा सकता है। खासकर भारत जैसे देश को जो सनातनी ही मुक्त चेतना का रहा है, वहां की राजनीति उदारवादी और समावेशी ही हो सकती है। इसलिए संघ ने अपनी केंद्रीय टीम में ऐसे व्यक्ति को जगह दी है जिसका जनाधार है। पहले संघ में जो नीचे के स्तर का होता था वह सरकार और संघ के बीच पुलिया का काम करता था। नेतृत्व सिर्फ वैचारिक आधार पर दिया जाता था।

जब किसी दल का राजनीति पर प्रभुत्व स्थापित हो जाता है तो उसके आधार बने सांस्कृतिक संगठन में विरोधाभास उठना भी स्वाभाविक होता है। राजनीतिक दल किसी खास विचारधारा के हो सकते हैं लेकिन सरकार पूरे देश की होती है। 2014 के लोकसभा चुनाव और उससे बाद के कई चुनावों का विश्लेषण बताता है कि भाजपा पर उन युवाओं और खासकर महिलाओं ने भी भरोसा किया था जो देश के राजनीतिक माहौल में ठोस बदलाव देखना चाहते थे। आज संघ के समर्थन में वे आधुनिक जीवनशैली वाले युवा भी हैं जो संघ के पुराने खांचे में असहज महसूस करते हैं।

वर्तमान समय में संघ को वैसे व्यक्ति की जरूरत है जो न सिर्फ सरकार के साथ समन्वय कर सके बल्कि उसके अंतर्विरोधों के उभार को भी समेट सके। दत्तात्रेय होसबाले के बारे में कहा जाता है कि सरकार के शीर्ष से लेकर तमाम संगठनों के नेताओं से उनके संबंध हैं। उनकी पहुंच सब तक है और सबकी पहुंच उन तक है। ये निजी संबंध और सब तक पहुंच उस संघ के लिए जरूरी है जो अब विचारधारा के स्तर पर सार्वजनिक होना चाहता है। दत्तात्रेय के पहले भी संघ में ऐसे कई कार्यकर्ता रहे हैं जिनकी जन्मभूमि दक्षिण भारत रही लेकिन कर्मभूमि उत्तर भारत रही। राजनीतिक विश्लेषक दत्तात्रेय होसबाले को दक्षिण भारत में भाजपा की कमजोर जमीन को दुरुस्त करने के लिए भी एक मजबूत चेहरा मान रहे हैं।

उत्तर और दक्षिण में मजबूती के साथ संघ को जरूरत है सार्वजनिक स्वीकार्यता की। समाज में वृहत्तर रिश्ते वाले चेहरे ही संघ के दायरे को आगे बढ़ा सकते हैं। आज संघ की विचारधारा को उस वृहत्तर रिश्ते की जरूरत आन पड़ी है तो ऐसे चेहरे को कमान दे दी गई है। संघ के वैचारिक दुर्ग में होसबाले एक ऐसा दरवाजा हैं जो नए और पुराने के बीच सेतु बनेंगे। देखना होगा कि संघ का खुला यह दरवाजा उसके अंतर्विरोधों और चुनौतियों की उभरी राह को कितना बंद कर पाता है।