2014 में जनता द्वारा कांग्रेस को हाशिए पर भेजने के बाद उसकी खाली जगह पर भर्ती होने के लिए अरविंद केजरीवाल से लेकर ममता बनर्जी तक की अर्जी लगी हुई है। स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा लेने के कारण कांग्रेस का बुनियादी चरित्र ही राष्ट्रीय रहा है। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी शहरी मध्यवर्ग की जनसुविधा तक ही सिमट जाती है। उसका भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी शुचिता पर जाकर खत्म हो जाता है कि रिश्वत लेना पाप है। बंगाल की जीत के बाद जिस तरह भाजपा और कांग्रेस के नेता तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं, उसे देख कर लगता है कि विकल्प के नाम पर साझा राजनीति की संस्कृति नहीं, नायकत्व का छवि प्रबंधन हो रहा है। जहां सत्ता के संकल्प में एक नायक खड़ा हो, क्या उसका विकल्प भी किसी का नायकत्व होगा, या जनता के लिए उदार होकर खड़ा किया गया साझा संघर्ष? विपक्ष और विकल्प के विमर्श पर बेबाक बोल।
दीवार क्या गिरी मिरे
खस्ता मकान की
लोगों ने मेरे सेहन में
रस्ते बना लिए
-सिब्त अली सबा
मैं जितने भी नेताओं से मिला या उनके साथ काम किया, उनमें से ममता बनर्जी जेपी, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, और पीवी नरसिंह राव की तरह हैं। इन नेताओं की कथनी और करनी समान थी। भारतीय राजनीति में यह दुर्लभ गुण है।’ : भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी
2014 के आम चुनाव में कांग्रेस का जो हश्र हुआ उसके बाद देश की राजनीति में राष्ट्रीय पार्टी की खाली जगह पर भर्ती का विज्ञापन सा दिखने लगा। बंगाल में ममता बनर्जी ने जिस तरह से केंद्र की सत्ता के साथ मुकाबला किया उससे उनकी छवि बंगाल के आगे की बनी। उपर्युक्त कथन में सुब्रमण्यम स्वामी जिस तरह से ममता बनर्जी की तुलना चंद्रशेखर और जेपी से कर रहे हैं उसमें कोई अतिरेक तो नहीं? आज जिस तरह कांग्रेस के नेताओं के तृणमूल में आगमन को ममता बनर्जी की आगामी विजय का संकेत माना जा रहा है क्या सच में वैसा होगा?
एक समय था जब केंद्र की सत्ता के प्रभाव में आकर तृणमूल कांग्रेस के नेता भाजपा में शामिल हो रहे थे। उत्तराखंड भाजपा के लिए कांग्रेस मूल के नेता अलग ही परेशानी बने हुए हैं। ये वो नेता हैं जिन्होंने कांग्रेस की डूबती नैया देख भाजपा को अपना खेवैया बनाना स्वीकार किया। लेकिन विधानसभा चुनाव में ममता की शक्ति देख कर तृणमूल से गए लोग वापस आए ही, भाजपा के नेताओं ने भी ‘हृदय परिवर्तन’ कर लिया।
गोवा के पूर्व कांग्रेस नेता याद दिला रहे हैं कि कांग्रेस तो शरद पवार, ममता बनर्जी और जगन मोहन रेड्डी जैसे नेताओं की पार्टी में बंट चुकी है। आज के दौर में कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी आरोप लगा रहे हैं कि ममता बनर्जी कांग्रेस की कीमत पर राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर आना चाहती हैं। वह भाजपा को फायदा पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं।
अपने मजबूत सियासी वजूद पर ममता बनर्जी ने बंगाल की जीत की मुहर लगा ली थी। बंगाल की जीत को देश की राजनीति के लिए निर्णायक मोड़ बताया गया। उन्हें प्रधानमंत्री के चेहरे के विकल्प के तौर पर भी देखा जाने लगा। जाहिर सी बात है कि उनकी सियासी उम्मीदों को पंख लगने थे। गोवा से लेकर मेघालय और त्रिपुरा तक उन्होंने तृणमूल कांग्रेस की पहुंच बनाने की कोशिश की।
ममता बनर्जी कल तक सोनिया गांधी से मिल रही थीं और आज कांग्रेस नेता अपने नेतृत्व को खारिज करते हुए तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। तृणमूल की ओर से प्रशांत किशोर कांग्रेस और राहुल गांधी को खारिज कर रहे हैं। ममता बनर्जी ने यूपीए के वजूद पर ही सवाल उठा दिए।
तृणमूल के पहले आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बनने का दावा किया था। आम आदमी पार्टी तो आई ही थी राष्ट्रीय मुद्दों को उठाते हुए राष्ट्रीय चरित्र के साथ। लेकिन जब पहली बार उसने देश की कई सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ा तो वह पंजाब में सिर्फ चार सीटें ही जीत पाई थी। केजरीवाल खुद चुनाव हार गए थे। दिल्ली में जीत के बाद उत्तर प्रदेश में आम आदमी पार्टी को बुरी तरह नकार दिया गया था।
ममता बनर्जी अगर यह मानती हैं कि वे कांग्रेस का विकल्प हो सकती हैं तो वे उस हिसाब से गणित बनाएंगी। लेकिन हो सकता है कि उस गणित के लिए भी आगे जाकर उन्हें कांग्रेस और उसकी नीतियों की जरूरत पड़े। एक समय ऐसा आया था जब लालू यादव, नीतीश कुमार, मायावती से लेकर शरद पवार तक को प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में पेश किया गया था, क्योंकि इन्होंने अपने क्षेत्र में कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों को टक्कर दी थी। बसपा ने भी कई राज्यों में अपने उम्मीदवार खड़े कर राष्ट्रीय दल का तमगा पाने में कामयाबी पाई थी। लेकिन आज उत्तर प्रदेश में बसपा खेल से बाहर मानी जा रही है। शरद पवार भी क्षेत्रीय क्षत्रप के खिताब से ही खुश हैं।
भाजपा, कांग्रेस और वाम दलों के अलावा कोई दल ऐसा नहीं है जिसका कोई राष्ट्रीय चरित्र है। भाजपा ने हिंदुत्व के नाम पर राष्ट्रीय चरित्र बनाने की मुहिम शुरू की। लेकिन एक खास चौखटे के हिंदुत्व की सीमा ये रही कि दक्षिण भारत में वह आज भी ठीक से प्रवेश नहीं कर पा रही है। वहीं स्वाधीनता संग्राम की वजह से कांग्रेस का शुरू से ही राष्ट्रीय स्वरूप रहा है। औपनिवेशिक समय से ही स्थापित यह पार्टी भारतीय राजनीति में सबसे लंबा इतिहास रखती है।
2014 में भाजपा की जीत के बाद थोड़े समय के लिए राजनीतिक निर्वात दिखा था। भाजपा से जुड़े विचारक कांग्रेस को टक्कर देने के लिए स्वतंत्रता संग्राम को भी पुनरपरिभाषित करते हुए नायकों का पुननिर्माण कर रहे हैं। कांग्रेस के एकाधिपत्य को खारिज करते हुए वैकल्पिक इतिहास रचने की कोशिश की जा रही है। कांग्रेस काल के अनेकता में एकता, सर्व धर्म समभाव व धर्मनिरपेक्षता जैसे सिद्धांतों को तो ममता बनर्जी भी बुलंद करने का दावा करती हैं। भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर आने के लिए उन्हें अपने चरित्र को कांग्रेस सरीखा ही बनाना होगा।
अरविंद केजरीवाल भी राजनीति में राष्ट्रीय चरित्र बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। लेकिन उनका राष्ट्र शहरी मध्यवर्ग तक सीमित हो जाता है। शहरी जनता को जनसुविधा पहुंचा कर फौरी राहत देने तक ही उनकी राजनीति सिमटी है। इसके बाद वो सीधे देशभक्ति के पाठ और बुजुर्गों को तीर्थाटन के मुद्दे पर आ जाते हैं। भ्रष्टाचार का मुद्दा शहरी पढ़े-लिखे मध्यवर्ग के लिए ही था। केजरीवाल अपने भ्रष्टाचार के मुद्दे को पुण्य-पवित्र शुचिता के आदर्श में लेकर चले जाते हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई प्रवचन जैसी ही साबित हुई। जैसे, नैतिक शिक्षा की किताबों में लिखा रहता है-झूठ बोलना पाप है, उसी तरह वो रिश्वत लेने को पाप बताते हैं। लेकिन रिश्वत और भ्रष्टाचार के स्रोत पर उनकी चुप्पी ही रही। यानी कांग्रेस की नवउदारवादी नीतियों के साथ पूरी तरह बने रहे। केजरीवाल की राजनीति न तो किसी समुदाय आधारित है और न धर्म आधारित। न ही इसकी कोई स्थानीयता है।
दिल्ली जैसे महानगर में आम आदमी पार्टी की राजनीति चल जाएगी। लेकिन उत्तर प्रदेश जैसी जगहों पर नहीं चलेगी। पंजाब में चली भी तो बहुत जल्द बिखराव आ गया। पंजाब वो जगह है जहां वैश्वीकरण का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है। अनिवासी भारतीयों की बहुलता वाले इस इलाके ने यहां की राजनीति को किस तरह वैश्विक रूप दे दिया है वो हम किसान आंदोलन में देख चुके हैं।
किसान आंदोलन में केजरीवाल भी काम भर ही बोले और ममता बनर्जी को इसके लिए दिल्ली दूर ही दिखी थी। बंगाल में ममता बनर्जी को किसान आंदोलन का फायदा इसलिए मिला क्योंकि किसान नेताओं ने भाजपा के खिलाफ प्रचार किया जो ममता बनर्जी के पक्ष में गया।
भारत में आज भी राष्ट्रीय चरित्र के दायरे में दो संदर्भ आते हैं। पहली विविधता में एकता और दूसरा किसान-मजदूर, बेरोजगारी, महंगाई जैसे वर्गीय संदर्भ। कांग्रेस की लाई नवउदारवादी नीति के पहले शिकार किसान, मजदूर, गरीब बने थे। इन्हीं जनविरोधी नीतियों के कारण भ्रष्टाचार का पूरा मामला बना और कांग्रेस बदनाम हुई। कांग्रेस के खिलाफ विकल्प वही जनता लाई थी जिसे लग रहा था कि उसके पास खोने के लिए कुछ बचेगा नहीं।
कांंग्रेस के नवउदारवादी और भाजपा के हिंदुत्व का विकल्प कुछ हो सकता है तो जनता के प्रति उदारता व विविधता में एकता को संवैधानिक सत्य मानना। इसमें ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल जैसे एक नायक को खड़ा करने से ज्यादा जरूरत है साझा वैकल्पिक राजनीति की। आज न कल आपको इस राजनीति के साथ आना पड़ेगा, तभी आप सत्ता साझा कर सकेंगे। भाजपा का व्यक्तिवादी नायकत्व इसलिए चल गया कि वह संगठनात्मक रूप से मजबूत है, जमीन से जुड़ी पार्टी है। कांग्रेस की खाली जगह का निर्वात इतना है कि आप अकेले खड़े हो जाएंगे तो आपकी बोली हुई आवाज गूंज कर आपके पास वापस चली जाएगी।